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________________ संस्कृत-साहित्य में पशु-पक्षी कथाएं गुप्त साम्राज्य के बाद रची गई । अतः कहा जा सकता है कि पंचतंत्र आदि में पशु-पक्षी कथाएं प्राकृतकथा-साहित्य से ही ग्रहण की गई हैं। ६. भौगोलिक सामग्री से भरपूर प्राकृत-कथा-साहित्य में भौगोलिक ज्ञान का भण्डार भरा पड़ा है जिसका आधार जैन साहित्य है। प्राकृत-कथा-साहित्य में जो भौगोलिक उल्लेख प्राप्त होते हैं उनका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इनमें बिहार, राजस्थान, आसाम, मालव, गुर्जरदेश, लाट, वत्स, सिन्ध, सौराष्ट्र, महिला राज्य आदि जनपदों का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त जम्बूद्वीप, चीनद्वीप, सिंहलद्वीप, स्वर्णद्वीप, महाकटाह, स्वर्णभूमि, महाविदेह क्षेत्र, रत्नद्वीप आदि द्वीपों का उल्लेख किया गया है। नगरों में अयोध्या, वाराणसी, प्रभास, हस्तिनापुर, राजगह, मिथिला, पाटलिपुत्र, प्रतिष्ठान आदि का उल्लेख कुवलयमालाकहा में प्राप्त होता है। कुवलयमालाकहा भौगोलिक साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इनके अतिरिक्त अटवी, वृक्ष, पर्वत आदि के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। समरादित्यकथा, धूर्ताख्यान, नर्मदासुन्दरी कथा, वसुदेव हिण्डी आदि कथा-ग्रन्थों में प्रचुर मात्रा में भौगोलिक सामग्री प्राप्त होती है। १०. सांस्कृतिक महत्त्व-तत्कालीन राजतन्त्र एवं शासन-व्यवस्था की जानकारी के लिए प्राकृत-कथा-साहित्य महत्त्वपूर्ण है। राजा का चुनाव, मन्त्री परिषद् का चुनाव, शासन-व्यवस्था, उत्तराधिकार आदि का विस्तृत वर्णन प्राकृत-कथा-साहित्य में प्राप्त होता है। समस्त राज-कार्य मन्त्री-मण्डल की सहायता से होता था। देश व नगर की सुरक्षा के लिए महासेनापति एवं सेना की व्यवस्था होती थी। इनके अतिरिक्त महा-पुरोहित, कन्या अन्तःपुर पालक, अन्तःपुर महत्तरिका आदि राज कर्मचारियों की नियुक्ति होती थी। राज-सभा में बड़े-बड़े विद्वानों को स्थान प्राप्त था। दूसरे देश के आक्रमण से सुरक्षा के लिए सेना को विभिन्न शस्त्रास्त्रों-असि, कत्तिय, करवाल आदिको चलाने की पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। कुवलयमालाकहा, समरादित्यकथा आदि कथा-ग्रन्थों में तत्कालीन युद्ध-प्रणाली, शासन-व्यवस्था आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जनता की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखना राजा का कर्तव्य था। अपराधियों को कठोर दण्ड दिया जाता था । समरादित्य कथा में चोर की सजा का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि चोर के शरीर पर कालिख लगाकर डिडिमनाद के साथ तथा घोषणा करते हुए वध्य-स्थल की ओर ले जाया जाता था। ११. सामाजिक जीवन-प्राकृत कथाओं में प्राय: मध्यमवर्गीय पात्रों के जीवन को प्रस्तुत किया गया है। प्राकृत-कथा-साहित्य में प्रायः संयुक्त परिवारों का ही चित्रण प्राप्त होता है। परिवार के सभी सदस्य साथ रहते थे। स्त्रियां गृहकार्य करती थीं। गरीब एवं मध्यमवर्गीय परिवारों के सजीव और यथार्थ अभावों, कठिनाइयों आदि का जैसा चित्रण प्राकृत-कथा-साहित्य में है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। ज्ञानपंचमी कथा में भी दरिद्र व्यक्ति की दुःखी अवस्था का वर्णन किया गया है "गोट्ठी बिसुट्ठ मिट्ठा दालिद्दविडंबियाण लोएहि । वज्जिज्जइ दूरेणं सुसलिलचंडाल कूवं व ॥" जिसकी बात बहुत मधुर हो लेकिन जो दरिद्रता की विडम्बना से ग्रस्त है, ऐसे पुरुष का लोग दूर से ही त्याग कर देते हैं, जैसे मीठे जल वाला चाण्डाल का कुआं दूर से वर्जनीय होता है। 'कहारयणकोस' में भी दरिद्र व्यक्ति की मार्मिक स्थिति का चित्र खींचा गया है "परिगलइ मई मइलिज्जइ जसो नाऽदरंति सयणावि । आलस्सं च पयट्टइ विष्फुरइ मणम्मि रणरणओ ॥ उच्छरइ अणुच्छाहो पसरइ सव्वंगिओ महादाहो। किं किं व न होइ दुहं अत्यविहीणस्स पुरिसस्स ॥' धन के अभाव में मति भ्रष्ट हो जाती है, यश मलिन हो जाता है, स्वजन भी आदर नहीं करते, आलस्य आने लगता है, मन उद्विग्न हो जाता है, काम में उत्साह नहीं रहता, समस्त अंग में महादाह उत्पन्न हो जाता है । अर्थविहीन पुरुष को कौन-सा दु:ख नहीं होता? कन्याओं का विवाह माता-पिता की इच्छा एवं स्वयंवर के माध्यम से किया जाता था। बर-कन्या के योग्य संयोग को ही महत्त्व दिया जाता था । रत्नशेखरकथा में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त प्राकृत-कथा-साहित्य पुत्र-जन्म, विवाह, धार्मिक अनुष्ठान आदि रीति-रिवाजों एवं बसन्तोत्सव, राज्याभिषेकोत्सव आदि पर्व-उत्सवों के वर्णनों से भरा पड़ा है। कुवलयमालाकहा, प्राकृतकथा संग्रह, समराइच्चकहा, कथाकोश प्रकरण, प्राकृत कथाकोश आदि कथा-ग्रन्थों में सामाजिक जीवन, रीति-रिवाज आदि का विस्तृत वर्णन है। १२. धर्म के विभिन्न आयाम-प्राकृत-कथा-साहित्य धार्मिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक कथा धार्मिक कथा है। जैन धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों के तत्त्वों का भी इनमें समावेश किया गया है। धार्मिक शिक्षा कथाओं के माध्यम से दी गई है जिससे आबालवृद्ध सभी धर्मों के स्वरूप व सिद्धान्तों को जान सकें तथा उनका प्रयोग कर सकें। १०२ आचार्यरत्न श्री दशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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