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________________ नारद के वचनों को सुनकर पुत्र की मूर्खता पर विचार करते हुए गुरु कहते हैं कि "जो एकान्तवादी कारण के अनुसार कार्य मानते हैं, वही एकान्तवाद है।" यह मिथ्या है क्योंकि सर्वदा कारण के अनुसार ही कार्य हो, ऐसा नहीं होता । गुणभद्र आचार्य ने ब्राह्मण के मुख से इस बात की पुष्टि की है। वह कहता है कि मैं सदा दया से आर्द्र हूं, परन्तु मुझसे उत्पन्न पुत्र अत्यन्त निर्दयी है।' इस प्रकार कारण के अनुरूप कार्य कहां हुआ? इस प्रकार 'एकान्तवाद' का खण्डन करने का प्रयत्न किया गया है। दूसरी ओर कहीं कार्य कारण के अनुसार होता है, और कहीं उसके विपरीत भी होता है। यही 'स्याद्वाद' है। यही वास्तव में सत्य है। इसी को 'अनेकान्तवाद' भी कहा जाता है। अंत में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जैन दर्शन मुख्य रूप से आचार-विचार से अनुप्रेरित है। पूर्व में इन लोगों का विशेष ध्यान देह-शुद्धि, अन्तःकरण-शुद्धि आदि पर ही था। जैन धर्म में 'तीर्थकर' का पद सबसे बड़ा है । इस अवस्था को प्राप्त कर जीव सम्यक् ज्ञान, सम्यक् वाक् तथा सम्यक् चारित्र से युक्त होकर साधु' हो जाते हैं। किसी प्रकार का रोग एवं भय इन्हें नहीं सताता। इनमें 'मतिज्ञान', 'श्रुतज्ञान', 'अवधिज्ञान' एवं 'मन:पर्यायज्ञान' स्वभावतः होते हैं। कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर ये 'केवलज्ञानी' भी हो जाते हैं।' इस प्रकार जैन देवशास्त्र में तीर्थंकर' ही सर्वोपरि माने जाते हैं । त्रिषष्टिशलाकापुरुषों में २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव होते हैं । ( इनकी जीवनियां जैन धर्म में रामायण, महाभारत व पुराणों के तुल्य महत्त्व रखती हैं।) राम और लक्ष्मण क्रमशः आठवें बलदेव और आठवें वासुदेव हैं। जैन धर्म में ईश्वर की सत्ता को सर्वोच्च नहीं माना गया है। तीर्थकरों' को ही ईश्वर के समान माना गया है जो अन्त में निर्वाण प्राप्त कर जन्म मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो जाते हैं। अनेकान्तवाद या स्याद्वाद को भी जैन धर्म में स्थान मिला है। इनके अनुसार, प्रत्येक वस्तु अनन्त-धर्मात्मक होती है । जैन दर्शन वस्तु के अनेक धर्मों में से एक धर्म के ज्ञान को 'नय' के नाम से पुकारता है । 'नय सिद्धान्त' जैन दर्शन का एक मुख्य विषय माना जाता है। जैन दर्शन में प्रत्येक परामर्श-वाक्य के साथ 'स्यात्' पद जोड़ा जाता है । यही 'स्याद्वाद' है। उत्तर पुराण में वर्णित रामकथा में प्रसंगवश वणित पर्वत व नारद के आख्यान से इस मत की पुष्टि की गई है। एकान्तवादी कारण के अनुसार कार्य मानते हैं। इस प्रकार आचार्य गुणभद्र ने रामकथा के माध्यम से जैन धर्म और दर्शन सम्बन्धी सिद्धान्तों को पुष्ट करने का प्रयत्न किया है। मुख्य रूप से जैन धर्म और दर्शन में कर्म सिद्धान्त, किए हुए कर्मों के अनुसार ही पुनर्जन्म-प्राप्ति, वेदों की अप्रामाणिकता, यज्ञों की अनुपादेयता, एकान्तवाद के खण्डन, स्याद्वाद या अनेकान्तवाद की स्थापना, तीर्थंकरों की सर्वोच्चता तथा अन्त में रत्नत्रय (सम्यग दर्शन, सम्यग् ज्ञान तथा सम्यग् चारित्र) की प्राप्ति कर निर्वाण पर ही बल दिया गया है और संक्षेप में ये ही जैन धर्म और दर्शन के प्राण हैं, जो गुणभद्राचार्य द्वारा अपने उत्तर पुराण में रामकथा द्वारा पुष्ट किए गए हैं। गुजरात में प्राचीन साहित्य की परम्परा बहुत कुछ अखंड रूप में मिलती है। प्राकृत और अपभ्रश की रचनाओं का तो उसमें अक्षय भंडार उपलब्ध होता है। उसका सम्बन्ध मुख्यतया जैन-धर्म से है, क्योंकि भारत के इस पश्चिमी भूभाग, लाट-गुर्जर-सौराष्ट्र प्रदेश में जैन-मतावलंबियों का प्रभुत्व प्रायः ईस्वी सन् के प्रारम्भ में ही मिलने लगता है। मध्यकाल से पूर्व गुजरात में जो भी महत्त्वपूर्ण रामकाव्य प्राप्त होते हैं, वे सभी जैन-विचारधारा से सम्बद्ध हैं और उनमें वणित रामकथा वाल्मीकिरामायण पर आधारित होते हुए भी अनेक अंशों में उससे भिन्न है। राम, सीता, लक्ष्मण और रावण आदि रामायण के सभी मुख्य पात्र जैनधर्मानुयायी चित्रित किए गए हैं और कथागत भिन्नताओं का कारण भी साहित्यिक न होकर धार्मिक एवं सैद्धांतिक ही अधिक प्रतीत होता है। ऐसी रचनाओं में प्राकृत में रचित विमलसूरि कृत 'पउमचरिउ' (तीसरी-चौथी शती ई०), संस्कृत में रचित रविषेण कृत 'पद्मचरित' (सातवीं शती ई०), अपभ्रश में रचित स्वयंभूदेवकृत 'पउमचरिउ' (आठवीं शती ई०), संस्कृत में रचित गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' (नवीं शती ई०) तथा हेमचंद्रकृत 'जैनरामायण' (बारहवीं शती ई०) इत्यादि ग्रंथों के नाम उल्लेखनीय हैं। गुजरात में जैन राम-कथा के दो भिन्न रूप प्रचलित मिलते हैं, जो विमलसूरि और गुणभद्र की रचनाओं पर आधारित हैं। -श्री जगदीश गुप्त के निबन्ध 'गुजरात में राम-काव्य की परम्परा तथा राम-भक्ति का प्रचार' से साभार (राष्ट्र-कवि मैथलीशरण गुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० सं०८४६) १. उ०पु०, ६७३१६ २. उ० पु०, ६७३१५ ३. हार्ट ऑफ जैनिज्म : पू० ३२-३३; पन्द्रह पूर्व भागों की भूमिका, भाग १, पृ० २४ ४. उमेश मिथ : हिस्टरी ऑफ इंडियन फिलासफी, भाग १, पृ० २२८; हार्ट ऑफ जैनिज्म, पू० ५६-५७ जैन साहित्यानुशीलन ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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