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अपने जीवन में कभी भी रेलगाड़ी में सफर नहीं किया है। वास्तव में आचार्यश्री का सम्बन्ध पृथ्वी माता से रहा है। उन्होंने षड् ऋतुओं ग्रीष्म, आतप, वर्षा, हेमन्त, शिशिर, वसन्त में पृथ्वी माता का प्रगाढ़ स्पर्श करके उसकी असीम धैर्यशक्ति के गुणों का मुक्तकंठ से गुणगान किया है। आचार्यश्री की निरन्तर संचरण प्रवृत्ति से पृथ्वी माता को भी उन पर गर्व है। उनकी निरन्तर वेगमान पगयात्राओं की गति को देखकर निस्सन्देह यह कहा जा सकता है कि वे वर्तमान युग में पदयात्राओं की गौरवशाली परम्परा के उज्ज्वल रत्न हैं।
मुनि श्री देशभूषण जी की आध्यात्मिक यात्रा का शुभारम्भ सुप्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र रामटेक से हुआ। इस महान् तीर्थराज पर उन्होंने परमपूज्य आचार्य श्री जयकीति महाराज से ऐलक दीक्षा ग्रहण की थी। भारतीय साहित्य में रामटेक की पहाड़ी को कवि कुलगुरु कालिदास के मेघदूत की प्रेरणाभूमि माना गया है। महाकवि कालिदास ने इसी पहाड़ी पर से निर्वासित यक्ष की विरह वेदना के माध्यम से सम्पूर्ण राष्ट्र के सांस्कृतिक वैभव का गुणगान किया है। जैन मन्दिरों से सुसज्जित रामटेक की एक निकटवर्ती पहाड़ी पर बौद्धधर्म के महान दार्शनिक नागार्जुन की दर्शनीय गुफा भी है। अतः इस प्रकार के गौरवशाली एवं सुप्रसिद्ध क्षेत्र में दीक्षित श्रमण परम्परा के महान् सन्त श्री देश भूषण जी से यह अपेक्षा थी कि वे भी कालिदास के मेघों की भांति सम्पूर्ण राष्ट्र में विचरण कर धर्म, दर्शन एवं भक्ति की अमरबेल को पुष्पित एवं पल्लवित करने में सहायक होंगे।
ऐलक परिवेश में श्री देशभूषण जी ने अपने दीक्षागुरु श्री जयकीर्ति जी के साथ सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरि (वंशगिरि) की पदयात्रा की । शुभयोग से आचार्यश्री जयकीर्ति जी ने मर्यादापुरुषोत्तम नारायण श्री रामचन्द्र जी द्वारा बनवाई गई जैन मन्दिरों की गौरवशाली पहाड़ी पर श्री देशभूषण जी को फाल्गुन सुदी पूर्णिमा सम्वत् १९६२ तदनुसार रविवार, ८ मार्च, १६३६ को परममुक्तिदायिनी दिगम्बरी दीक्षा प्रदान की। इस महान् पर्वतराज पर भगवान् श्री रामचन्द्र जी वनवास प्रवास की अवधि में पदयात्रा करते हुए आये थे। महापुरुषों की पदयात्राओं से गौरवमंडित सिद्धक्षेत्र श्री कुन्थलगिरि में मुनि श्री देशभूषण जी को भी गुरु के प्रसाद से जैन आगमों में निहित मुनिचर्या के अन्तर्गत पदयात्रा का महाव्रत प्राप्त हो गया ।
मुनि श्री देशभूषण जी ने सन् १९३६ में अपने दीक्षागुरु श्री जयकीर्ति जी महाराज के साथ सिद्धक्षेत्र श्री कुन्थलगिरि से मांगुर की आर विहार किया और वहीं उनका प्रथम वर्षायोग आचार्यश्री के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ। वर्षायोग की समाप्ति पर आपने आचार्यश्री के साथ दक्षिण भारत की पदयात्रा की और सुप्रसिद्ध जैन तीर्थक्षेत्र मूलबद्री की वन्दना के उपरान्त आप आचार्यश्री के संघ के साथ श्रवणबेलगोल पहुंच गये। श्रवणबेलगोल में भगवान् बाहुबलि की विशाल एवं मनोज्ञ प्रतिमा ने आपको अत्यधिक प्रभावित किया । निकटवर्ती पहाड़ियों के जैन वैभव एवं समर्थ आचार्यों एवं मुनियों की साधनास्थली (समाधियों) ने आपके मानस को आन्दोलित कर दिया।
आचार्य श्री जयकीर्ति जी ने देशभूषण जी की वैराग्यवृत्ति एवं धर्माचरण से सन्तुष्ट होकर इन्हें पृथक् संघ बनाकर धर्मप्रभावना की अनुमति दे दी और स्वय संघ सहित श्री सम्मेदशिखर जी की ओर चल दिये । संघ से पृथक् हो जाने के उपरान्त मुनि श्रा देशभूषण जी ने श्रवणबेलगोल को अपनी साधनास्थली बना लिया । मुनि श्री प्रायः पर्वत की शिला पर स्थित भगवान् बाहुबली का कलात्मक प्रतिमा के स्वर्गीय सौन्दर्य का घंटों तक नियमित अवलोकन करने लगे। उस समय दूर तक फैले हुए नीले आकाश में आचार्य श्रो को चतुर्दिक भगवान् के चरणों का शुभ्र प्रसार ही दिखलाई पड़ता था।
____ इन्हीं दिनों आपको अचानक यह समाचार मिला कि परमपूज्य श्री जयकीति जी महाराज ने ईसरी में जैनधर्मानुकूल समाधि द्वारा अपना पार्थिव शरीर छोड़ दिया है। पूज्य गुरुदेव के अकस्मात् स्वर्गारोहण के समाचार से आप हतप्रभ हो गये। अपने श्रद्धेय गुरु के दिव्य गुणों को स्मरण कर आपने उनके द्वारा की गई धर्मप्रभावना को अपना आदर्श मानकर दक्षिण भारत और निकटवर्ती प्रदेशों में धर्मप्रचार के निमित्त पदयात्राएँ आरम्भ करने का संकल्प किया। इस प्रकार आपकी प्रारम्भिक पदयात्राएं दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र एवं मध्यप्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में सम्पन्न हुई। मुनि श्री देशभूषण जी के सरल, सौम्य एवं धर्ममय व्यक्तित्व तथा पदयात्रा के सन्दर्भ में दिये गये सदुपदेशों से श्रद्धालुओं में अपूर्व उत्साह एवं आकर्षण का समावेश होने लगा। उनका धर्माचरण एवं स्वाध्याय के प्रति अनुराग श्रावक समुदाय में चर्चा का विषय बन गया। युवावस्था में निर्विकारी सन्त को धर्म का निर्दोष पालन करते हुए देखकर समाज में एक वैचारिक क्रांति आरम्भ हो गई। मुनि श्री ने समाज की कमजोरी को लक्षित करते हुए अपने सम्पर्क में आने वाली धर्मप्राण जनता को आत्मा की अपरिमित शक्ति से अवगत कराते हुए उन्हें निर्भीकता का पाठ पढ़ाया और
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महारान अभिनन्दन प्रन्थ
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