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________________ धर्मशर्माभ्युदय में कवि हरिश्चन्द्र द्वारा तपस्यालीन धर्मनाथ स्वामी का वर्णन सजीव होने के साथ-साथ काव्यात्मक भी है।" इसी प्रकार का वर्णन बाहुबलि के प्रसंग में, अमरचन्द्र सूरि द्वारा पद्मानन्द महाकाव्य में भी दिया गया है। इन महाकाव्यों की एक विशेषता यह भी है कि सांसारिक भोगों से विरक्ति का कारण अचानक ही किसी घटना का घटित हो जाना है । इनमें से 'उल्कापात' वैराग्य उत्पन्न करने का मुख्य प्रेरक बना है । धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में स्वामी धर्मनाथ अचानक 'उल्कापात' को देखकर संसार से विमुख हो जाते हैं। यहां जीवन की क्षणभंगुरता की तुलना पद्मपत्र की नोक पर स्थित पानी की बूंद से करके, कवि ने अपनी मौलिक प्रतिभा का प्रमाण दिया है। कभी-कभी आकाश में लुप्त होता हुआ बादल', वृद्धावस्था तथा कमल में बन्द मृत भौंरा भी विरक्ति का कारण बना है । चन्द्र ग्रहण और अनलंकृत शरीर भी वैराग्य का प्रेरक बना है । केवल पद्मानन्द महाकाव्य में ही कवि अमरचन्द्रसूरि ने 'मोक्षावस्था' का वर्णन किया है ।" यह पद्य जैन दर्शन की 'निर्वाण भावना' के अन्तर्गत आता है । इस प्रकार यद्यपि शान्त रस का वर्णन भरत द्वारा अपने नाट्यशास्त्र में नहीं किया गया था, लेकिन बाद में इसे जोड़ दिया गया । इससे शान्त रस की स्वीकृति में बौद्ध और जैन दर्शन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । जैन महाकाव्यों के कवियों ने शान्त रस के प्रसंग में, जैन दर्शन में वर्णित लगभग सभी १२ अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का वर्णन अपने काव्यों में किया है। इन महाकाव्यों में सभी रसों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके लेखकों ने मनुष्य जीवन के चारों पुरुषार्थों पर समान बल दिया है, यद्यपि प्रधानता शान्त रस की ही है। प्रस्तुत लेख में उन्नीस जैन संस्कृत महाकाव्यों का रस की दृष्टि से आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यहां पर कुछ इनेगिने पद्यों को ही उद्धृत किया गया है । स्थानाभाव के कारण, सभी रसों का अलग-अलग विभाग उपविभाग बनाकर उल्लेख किया जाना सम्भव नहीं हो सका। लेकिन इन काव्यों में किस प्रकार सभी रसों का काव्यात्मक निरूपण जैन कवियों द्वारा कितनी सुन्दरता से किया गया है, इसका केवल दिग्दर्शन मात्र ही पाठकों को करवाया गया है। विस्तृत जानकारी, समीक्षा व आलोचना के लिए लेखिका द्वारा लिखित शोध-प्रबन्ध पढ़ें। 5 १. धर्मशर्माभ्युदय २० / ४१ २. पद्मानन्द, १७/३६३ ३. वातान्दोलत्पद्मिनी पल्लवाम्भो बिन्दुच्छायाभंगुरं जीवितव्यम् । तत्संसारासारसौख्याय कस्माज्जन्तुस्ताम्यत्यब्धिवीचीचलाय ॥ धर्मशर्माभ्युदय, २०/१४ ४. हरिवंशपुराण, १६ / ४५, वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, २ / ६५-१८ ५. पद्मपुराण, २६ / ७३ एवं ३२ / ६६; द्विसंधान, ४/१-६ जयन्तविजय, १८ / ५२ ; चन्द्रप्रभचरित, १ / ६८ ६. पद्मपुराण, ५ / ३११, आदिपुराण, ८ /७२ ७. मोक्षाप्ती न जरा नाधिनं व्याधिर्न शुचो न भीः । न मृत्युर्न परावृत्तिः प्राप्यन्ते पुनरात्मना । पद्मानन्द, १४ / २०३ 8. “Rasa in the Jaina Sanskrit Mahakauyas" From 8th to 15th Cent. A.D; Deptt. of Sanskrit, University of Delhi, 1977 (इस शोध-प्रबन्ध का प्रकाशन अपेक्षित है ।) जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only ३६ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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