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'मालोपमा' द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि एक बार स्त्रियों के चंगुल में फंसा मनुष्य, अपना नाश किए बिना, बाहर नहीं निकल सकता।
'जयन्तविजय' में अभय देवसूरि ने स्त्री की तुलना पतंगों का विनाश करने वाली शमा से की है।' 'मल्लिनाथचरित' में विनयचंद्र सूरि द्वारा, वे बाह्य रूप में ही सुन्दर बतलाई गई हैं।'
प्रद्युम्नचरित में महासेनाचार्य ने उपमाओं द्वारा विषय-भोगों की निरर्थकता को दर्शाया है। सभी उपमाएं इन भोगों की क्षणभंगुरता, सारहीनता और निरर्थकता की ओर संकेत करती हैं । कवि ने एक संक्षिप्त से श्लोक द्वारा इतनी अर्थयुक्तियों को ध्वनित किया है।
कवि हरिश्चन्द्र ने 'धर्मशर्माभ्युदय' में उल्का-पात देखकर राजा महासेन का राज्य से विमुख हो जाने का वर्णन नवीन और अनूठे ढंग से ही किया है।
नेमिनिर्वाण महाकाव्य में वाग्भट्ट द्वारा स्वामी नेमिनाथ के मुखारविन्द से जनसाधारण को विषय-भोगों से दूर रहने का उपदेश करवाया गया है।
हरिवंशपुराण में जिनसेनाचार्य ने सब सांसारिक वस्तुओं की क्षणभंगुरता का वर्णन किया है। जब पुण्यात्मा देवता भी अपने प्रियजनों से बिछुड़ जाते हैं तो मनुष्य का तो कहना ही क्या ?"
कवि धनजय ने तो अपने 'द्विसंधान' महाकाव्य में विषय-भोगों, लक्ष्मी और आयु की अस्थिरता और चञ्चलता का वर्णन मौलिक, सजीव और प्रभावशाली उपमाओं द्वारा किया है, जो अन्य किसी भी साहित्य में दुर्लभ है।
'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य में कवि हरिश्चन्द्र ने एक बहुत ही अनूठी और काव्यात्मक उपमा देकर युवावस्था की अस्थिरता का वर्णन बहुत ही रोचक ढंग से किया है। यहां 'आकर्णपूर्ण' शब्द का अपना महत्त्व है। यह अत्यधिक सौन्दर्य को ध्वनित करता है । वृद्धावस्था की झुर्रियों की तुलना सरिताओं से की गई है क्योंकि वे आकृति व रूप में उनके समान होती हैं। सरिताओं के निरन्तर प्रवाह से, वृद्धावस्था के आने पर सौन्दर्य का शीघ्र ही नष्ट हो जाना द्योतित होता है।
शान्तिनाथचरित' में मुनिभद्राचार्य दो संक्षिप्त पद्यों में सांसारिक विषय-भोगों के अस्थायी, क्षणिक और नश्वर स्वरूप को चित्रित करते हैं।"
सब उदाहरण जैन दर्शन में वर्णित बारह भावनाओं में से 'अनित्यभावना' के अन्तर्गत समाविष्ट हैं। इन काव्यों में शान्त रस के कुछ ऐसे भी उदाहरण प्राप्य हैं जिनमें जैन दर्शन की 'संसार-भावना' परिलक्षित होती है।
रविषेणाचार्य ने एक छोटे से अनुष्टुप् द्वारा संसार के स्वरूप का सुन्दर चित्रण अपने 'पद्मपुराण' में किया है। 'उपमा' अपने आप में अनेक बातों को सूचित करती है। जिस प्रकार अरघट्ट में कुछ बाल्टियाँ पूरी भरी होती हैं तो कुछ आधी भरी होती हैं तो कुछ अन्य
१. कन्यकानां कुमारं तं तासां मध्यमधिष्ठितम् । विज़म्भमाणसद्बुद्धि पजरस्थ मिवाण्डजम् ।। जाललग्नणपोतं वा भद्रं वा कुजराधिपम् ।
अपारकर्दमे मग्न सिंह वा लोहपजरे ।। उत्तरपुराण, ७६/६४-६५ २. जयन्तविजय, १२/५४ ३. मल्लिनाथचरित, ५/१९८-२०१ ४ स्वप्नेन्द्रजाल फेनेन्दुमगतृष्णेन्द्रचापवत्।
सर्वेषां सम्पदत्यतं जीवितं च शरीरिणाम् ।। प्रद्य म्नचरित, १२/५६ ५. नियम्य यदाज्यतणेऽपि पालितं तवोदयात्प्राग्गहमैकसत्त्ववत् ।
विबन्धनं तद्विषयेषु निःस्पृह मनो बनायैव ममाद्य धावति ।। धर्मशाभ्युदय, १८/७ ६. नेमिनिर्वाण, १३/२४ । ७. हरिवंशपुराण, १६.३७-३८ ८. तथाहि भोगाः स्तनयित्नुसन्निभाः गजाननाधूननचञ्चला: श्रियः ।
निनादिनाडिन्धमकण्ठनाडिवचलाचलं न स्थिरमायरंगिनाम् ।। द्विसंधान, ६/४५ ६. आकर्णपूर्ण कुटिलालकोमि रराज लावण्यसरो यदंगे ।
वलिच्छलात्सारणिधोरणीभि: प्रवाह्यते तज्जरसा नरस्य ।। धर्मशर्माभ्युदय, ४५८ १०. शान्तिनाथचरित, १३/४४१ ११. अरघट्ट घटीयन्त्रसदृशाः प्राणधारिणः ।
शश्वद्भवमहाकपे भ्रमन्त्यत्यन्तदु:खिताः ॥ पद्मपुराण, ६/८२
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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