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________________ "बहुभङ्गी" ध्वनि को ही कण्ठगत गुणों अथवा दोषों के आधार पर पुनः अष्टप्रकारक कहा गया है । वे आठ प्रकार हैं(i) माधुर्य, (ii) श्रावकत्व, (iii) स्निग्धत्व, (iv) घनत्व, (v) स्थानकत्रयशोभा, (vi) खेटि, (vii) खेणि, (viii) भग्न शब्द । इनमें से पूर्व पांच कण्ठ के गुण तथा परवर्ती तीन कण्ठ के दोष कहे गए हैं। इन उपयुक्त वर्गीकृत शारीर भेदों को पूर्वाचार्यों द्वारा वर्णित गुण-दोषों में संनिहित किया जा सकता है मात्र ईषत् प्रयास तथा तात्त्विक विवेचन ही इसके लिए अपेक्षित है। अतिविस्तारभय से इस प्रसंग को यहाँ नहीं कहा जा रहा है परन्तु आचार्य पाश्वदेव द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण इसे एक नया रंग देता है। (i) कडाल - मन्द्र, मध्य एवं तार इन तीनों स्वरस्थानों में तीक्ष्णता युक्त ध्वनि, (ii) मधुरमन्द्र एवं मध्य स्वरस्थानों में मधुरतायुक्त, - (iii) पेशल - तार में राग प्रकाशक ध्वनि, (iv) बहुभङगी - उपर्युक्त तीनों प्रकारों का मिश्रण । उपर्युक्त चारों प्रकारों में से बहुभङ्गी नामक चतुर्थ प्रकार के पुनः चार भेद हैं(i) कालमपुर (ii) मधुरपेशल (iii) डालपेशल एवं (iv) शारीरत्रयमिधक। इसके अतिरिक्त अम्वरथानों पर भी आचार्य पाश्वदेव गायकों के गुण-दोषों का वर्गीकरण प्रस्तुत करते समय पूर्वाचायों से भिन्य प्रस्तुत करते हैं। पूर्वाचार्यों में भरत मुनि के पश्चात् हुए संगीत के सर्वमान्य आचार्य शाह देव (१३वीं शती) का भी आचार्य पाददेव यथावत् अनुसरण नहीं करते हैं। संगीत की, आचार्य पार्श्वदेव से पूर्ववर्ती परम्परा, जिसका पालन संगीतरत्नाकर तथा संगीतदर्पण आदि ग्रन्थों के ख्यातनामा रचयिताओं ने भी किया है, में गायक के गुणदोषों का वर्णन एक क्रम से प्राप्त होता है । इस परंपरा का पालन करने वाले चतुरदामोदर पंडित (१६वीं शती) आदि विद्वानों के होने पर भी संगीतरत्नाकर सदृश महान् ग्रंथ की विख्यात "सुधाकर" टीका के रचयिता सिंहभूपाल (१४वीं शती) तथा "कलानिधि" टीका के रचयिता कल्लिनाथ द्वारा संगीतसमयसारकृत के उद्धरणों को अपनी टीका में उद्धृत करते हुए आचार्य पार्श्वदेव द्वारा विवृत गुण-दोषों आदि विषयों को इन परम्परावादी आबादी के मत के साथ-साथ अन्य मत के रूप में स्थापित करना, इनके द्वारा प्रस्थापित वर्गीकरण पर स्वीकृति को मोहर लगाने सदृश कार्य माना जाना चाहिये । पूर्वाचार्यों द्वारा स्वीकृत गुण निम्नक्रम से हैं : गायकों में आकांक्षित गुण : 3 (१) शब्द (२) सुशारीर, (३) ग्रहमोविचक्षण, (४) रागरागाङ्गभाषाङ्गक्रियाङ्गोपाङ्गकोविद (५) प्रबन्धान निष्णात, (६) विविधालप्तितत्त्ववित्, (७) सर्वस्थानोत्थगमकेष्वनायासल सद्गति, (८) वश्यकण्ठ, (६) तालज्ञ, (१०) साबधान, (११) जितश्रम, ( १२ ) शुद्धच्छायालगाभिज्ञ, (१३) सर्वकाकुविशेषवित् (१४) अनेकस्थायसंचार, (१५) सर्वदोषविवर्जित, (१६) क्रियापर, (१७) युक्तलय, (१८) सुघट, (१६) धारणान्वित, (२०) स्फूर्जन्निर्जवन : (२१) हारि, (२२) रहः कृत्, (२३) भजनोद्धुर, (२४) सुसंप्रदाय । इन पारिभाषिक पदों का विवरण निम्नप्रकार से क्रमशः प्रस्तुत है : (१) हृद्यशब्द दूध, अर्थात् रमणीय शब्द अर्थात् ध्वनि है जिसकी यहाँ शब्द से ध्वनि हो अभिप्रेत है। वैयाकरण भी मतान्तर में ध्वनि को शब्द मानते हैं ।" (२) सुशारीर 1 होगा कि सुपारी (३) ग्रहमोक्षविचक्षण : ग्रह तथा मोक्ष से क्रमशः गीत को आरंभ करने वाला स्वर तथा गीत को समाप्त करना, अभीष्ट अर्थ हैं। यही अर्थ संगीतरत्नाकर के दोनों टीकाकारों को भी इष्ट है। इनमें विलक्षणता वर्षात् ब्रहालयादि के अनुसार गीतका निर्वाह कर सकता।' ४. प्रस्तुत लेख में इसको सर्वमुख्य मानते हुए वर्णन पूर्व ही किया जा चुका है। उस आधार पर यह कहना अनुचित न से विरहित गायक अच्छा गायक हो ही नहीं सकता । १. संगीतसमयसार - २.३३-४३. २. संगीतरत्नाकर ३, १३-१८. ३. द्रष्टव्य पातंजल व्याकरणमहाभाष्य पस्पशाह्निक "शब्दं कुरु । मा शब्दं कार्षीः शब्दकार्यं यं माणवकः । इति ध्वनि कुर्वन्नेवमुच्यते तस्माद्वनिः शाब्दः " द्रष्टव्य संगीतरत्नाकर पर कल्लिनाथीय तथा सिंहभूपालीय टोकाएं क्रमश: संगीतरत्नाकर भाग दो पृष्ठ १५३ तथा १५५. २०८ Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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