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आयुर्वेद और जैन धर्म : एक विवेचनात्मक अध्ययन
डा० प्रमोद मालवीय, डा० शोभा मोवार, डा० यज्ञदत्त शुक्ल, प्रो० पूर्णचन्द्र जैन
आयुर्वेद भारतीय दर्शनों पर आधारित विज्ञान है। भारतीय दर्शन-परम्परा को दो भागों में विभाजित किया जाता है। प्रथम वे परम्पराएं हैं जिसके अनुयायी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, और उसे ही कर्ता एवं भोक्ता कहते हैं। और दूसरी परम्परा वह है जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करती। प्रथम को आस्तिक दर्शन-परम्परा और दूसरी को नास्तिक दर्शन-परम्परा की संज्ञा प्रदान की गयी है।।
जैन, बौद्ध और चार्वाक मतानुयायी दर्शनों का समावेश नास्तिक दर्शनों के अन्तर्गत किया जाता है । आयुर्वेद के सन्दर्भ में इन दोनों ही परम्पराओं में पर्याप्त साम्यता है, तथा दोनों ही सम्प्रदायों के मानने वाले दार्शनिक आयुर्वेद को दुःखों की निवृत्ति के हेतु उत्पन्न विज्ञान के रूप में मानते हैं ।
सम्वे जीवा वि इच्छति जीविउ न मरिज्जिउं । (दशवकालिक ६/११) वाङ्म आसन्नसोः प्राणश्चक्षुरक्ष्णोः श्रोत्र कर्णयोः । अपलिताः केशा अशोणा दन्ता बहु बाह्वोर्बलम् । उर्वोरोजो जङ्घयोजवः पादयोः प्रतिष्ठा। (अथर्ववेद, १६/६०/१-२) अश्मा भवतु नस्तनूः (यजुर्वेद, २६/४६) जोवेम शरदः शतम् । अथर्ववेद, १६/६७/२) चिकित्सा रोगहरणलक्षणा सा तदेव जाता। (आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, १३१/१)
चिकित्सा नाम रोगापहारः रोगापहारक्रिया, सापि तदैव भगवदुपदेशात प्रवृत्ता-(ऋषभ-चरित्र)
जैन धर्म का प्रारम्भ उसके इतिहास के अनुसार भगवान् ऋषभ से हुआ है। इस मत के मानने वालों के अनुसार वे ही आयुर्वेद के उपदेशक माने गये हैं। जैन मतावलम्बियों की मान्यता है कि भगवान् ऋषभदेव से पूर्व सृष्टि या लोक में दुःखों या रोगों का अभाव था । मानवसमाज पूर्ण स्वास्थ्य का सेवन कर रहा था। सम्पूर्ण जन-आगम साहित्य को द्वादशांग के रूप में बारह भागों में विभाजित किया गया है। उसका अन्तिम अंग दृष्टिवाद है । दृष्टिवाद पुनः परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, प्रथमानुयोग और चूलिका-इन ५ भागों में विभक्त होता है। पूर्वगत १४ पूर्वो से निर्मित है। उसमें से १२ वां 'पूर्व' प्राणानुवाद पूर्व है। प्राणानुवाद 'पूर्व' में इन्द्रिय, श्वासोच्छ वास, आयु और प्राण का वर्णन किया गया है । इसके साथ ही साथ शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, यम-नियम, आहारविहार एवं रसरसायनादि का सन्दर्भ भी मिलता है । व्यक्तिगत स्वास्थ्य के साथ-साथ जनपदध्वंस के प्रति उत्तरदायी परिस्थितियों एवं व्याधियों एवं उनके निराकरण का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसके साथ ही साथ दैविक, भौतिक व्याधियां भी चिकित्सा-सहित इस शास्त्र में वर्णित है। इसी 'प्राणानुवाद पूर्व' को जैन धर्मावलम्बियों ने आयुर्वेद का मूल कहा है। उत्तर काल के जन आचार्यों ने इसी आधार पर आयुर्वेद-सम्बन्धी बृहत् साहित्य की रचना की है। पूर्व' के उद्देश्य के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस प्रकार तीव्र हवा के
बन प्राच्य विवाएं
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