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________________ -(६) कल्याणकारक में शारीर विषयक वर्णन विस्तार से नहीं मिलता, किन्तु २० में परिच्छेद में भोजन के बारह भेद, दश आषधकाल, स्नेहपाक आदि, रिष्टों का वर्णन करने के साथ शरार के मर्मों का वर्णन किया गप है। (७) इस शास्त्र (प्राणावाय या आयुर्वेद) के दो प्रयोजन बताये गये हैं-स्वस्थ का स्वास्थ्यरक्षण और रोगी का रोगमोक्षण । इन सबको संक्षेप से इस ग्रन्थ में कहा गया है "लोकोपकारकरणार्थमिदं हि शास्त्र शास्त्रप्रयोजनमपि द्विविधं यथावत । स्वस्थस्य रक्षणमथामयमोक्षणं च संक्षेपतः सकलमेवनिरूप्यतेऽत्र ।। (कका० ११२४) चिकित्सा के आधार जीव हैं । इनमें भी मनुष्य सर्वश्रेष्ठ जीव हैं। 'सिद्धान्ततः प्रथितजीवसमासभेदे पर्याप्तसंज्ञिवरपंचविधेन्द्रियेष । तत्रापि धर्मनिरता मनुजाः प्रधानाः त्रे च धर्मबहुले परमार्थजाताः ॥ (क० का० ११२६) ... जैनसिद्धांतान सार जीव के १४ भेद हैं--१ एकद्रिय सूक्ष्म पर्याप्त, २ एकेन्द्रियसूक्ष्म् अपर्याप्त, ३ एकेंद्रिय बादरपर्याप्त, ४ एकेंद्रिय बादर अपर्याप्त, ५ द्वीन्द्रियपर्याप्त ६ द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, ७त्रीन्द्रियपर्याप्त, ८ श्रीन्द्रिय अपर्याप्त, चतरीन्द्रिय पर्याप्त. १० चतरीन्द्रिय अपर्याप्त, ११ पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्त, १२ पंचेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्त, १३ पंचेद्रिय संज्ञो पर्याप्त, १४ पंचेंद्रिय संज्ञी अपर्याप्त। (१) जिनको आहार शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा व मन-इन ६ पर्याप्तियों में यथासंभव पूर्ण प्राप्त हए हों उन्हें 'पर्याप्तजीव' कहते हैं। जिन्हे ये पूर्व प्राप्त न हुए हों, उन्हें 'अपर्याप्त जीव' कहते हैं । अपर्याप्त जीवों की अपेक्षा पर्याप्त जीव श्रेष्ठ हैं। (२) जिनको हित-अहित, योग्य-अयोग्य, गुण-दोष आदि का ज्ञान होता है उन्हें 'संज्ञी' कहते हैं, इसके विपरीत असंजी असंज्ञियों से संज्ञी श्रेष्ठ हैं। पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं। उनमें भी धर्माचरण करने वाले मनुष्य प्रधान हैं, क्योंकि उन्होंने धर्ममय क्षेत्र (शरीर) में जन्म लिया है। (८) ग्रन्थ-योजना भी वशिष्ट्यपूर्ण है । संपूर्ण ग्रन्थ के मुख्य दो भाग हैं--मूलग्रन्थ (१ से २० परिच्छेद ) और उत्तरतंत्र (२१और चन्द) । 'प्राणावाय' (आयर्वेद) संबंधी सारा विषय मूलथ में प्रतिपादित किया गया है । मुलग्रन्थ भी, स्पष्ट तया दो भागों में बंटाना वायपरक और रोगचिकित्सापरक । प्रथम परिच्छेद में आयुर्वेद (प्राणावाय) के अवतरण की ऐतिहामिक परम्परा बतायी गयी है योजन को लिखा गया है। द्वितीय परिच्छेद से छठ परिच्छेद तक स्वास्थ्य-रक्ष गोपाय वणित हैं। स्वास्थ्य दो प्रकार का बताया * . पारमाथिक स्वास्थ्य (आत्मा के संपूर्ण कर्मा के क्षय से उत्पन्न आत्यंतिक नित्य अतीन्द्रिय मोक्ष रूपी सखाया स्वास्थ्य (आग्निव धात, की समता दोषविभ्रम न होना, मल-मत्र का ठीक से विसर्जन, आत्मा-मन-इंद्रियों की प्रसन्नता पनि दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या, वाजीकरण और रसायन विषयों का वर्णन है) क्योंकि ये सभी स्वास्थ्यरक्षण के आधार हैं। सातवें परिपछेद में रोग और चिकित्सा की सामान्य बातें, निदान पद्धति का वर्णन है। सो अठार तक विभिन्न रोगों के निदान चिकित्मा का वर्णन है। रोगों के मोटे तौर पर दो वर्ग किए गए हैं-१ महामय. २ क्षद्रामय । महामय आठ प्रकार के हैं-प्रमेह, कुष्ठ, उदर रोग, वातव्याधि, मढ़गभ, अश, अश्मरी और भगंदर। कोषमा रोगों की श्रेणी में आते हैं । क्षुद्र रोगों के अंतर्गत ही 'भूतविद्या' संबंधी विषय-बालग्रह और भूतों का वर्णन है। उन्नीसवें परिच्छेद में अशेषकर्मक्षयजं महाभु त यदेतदात्यंतिकमद्वितीयम् | प्रतीन्द्रिय प्रार्थितमर्थ वेदिभिः तदेतदुक्तं परमार्थनामकम् ॥ ३॥ समाग्निधातुत्वमदोषविभ्रमो मल क्रियात्मेंद्रियसुप्रसन्नता | मन: प्रमादश्च नरस्य सर्वदा, तदेवमुक्तं व्यवहारजं खल || ४|| (रु. का. २/३.४) जैन प्राच्य विद्याएँ १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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