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________________ चरक आदि ग्रन्थों में आयुर्वेद के अवतरण का जो निरूपण है, उसका क्रम इस प्रकार है ब्रह्मा दक्षप्रजापति अश्विनीकुमार-द्वय ऋषि-मुनि-गण आयर्वेद के इन ग्रन्थों में आयुर्वेद को वैदिक आस्तिक शास्त्र माना गया है। अतः इसका उद्भव अन्य वैदिक आस्तिक शास्त्रों (कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि) की भांति ब्रह्मा से स्वीकार किया गया है। वस्तुतः ब्रह्मा, वैदिकज्ञान का सूचक प्रतीक है। 'प्राणावाय' परम्परा में ज्ञान का मूल तीर्थकरों की वाणी को माना गया है। यह परम्परा इस प्रकार चलती है तीर्थकरों की वाणी (आगम) गणधर और प्रतिगणधर श्रुतकेवली बाद में ऋषि-मुनि इस प्रकार वैदिक आयुर्वेद की मान्यपरम्परा और प्राणावाय-परम्परा में यह अन्तर है। २. कल्याणकारक में कहीं पर भी चिकित्सा में मद्य, मांस और मधु का प्रयोग नहीं बताया गया है। जैन-मतानसार ये तीनों वस्तएं असेव्य हैं। मांस और मधु के प्रयोग में जीव-हिमा का विचार भी किया जाता है। मद्य जीवन के लिए अशुचिकर, मादक, और अशोभनीय माना ाता है, आसव-अरिष्ट का प्रयोग तो कल्याणकारक में आता है। जैसे प्रमेहरोगाधिकार में आमलकारिष्ट आदि। आयुर्वेद के प्राचीन संहिताग्रन्थों में मद्य, मांस और मधु का भरपूर व्यवहार किया गया है । चरक आदि में मांस और मांसरस से संबंधित अनेक चिकित्सा प्रयोग दिये गये हैं। मद्य को अग्निदीप्ति कर और आशु प्रभावशाली मानते हुए अनेक रोगों में इनका विधान किया गया है। राजयक्ष्मा जैसे रोगों में तो मांस और मद्य की विपुल-गुणकारिता स्वीकार की गई है। मधु अनुपान और सहपान के रूप में अनेक औषधियों के साथ प्रयक्त होता है तथा मधूदक, मध्वासव आदि का पानार्थ व्यवहार वणित है। ३. चिकित्सा में वानस्पतिक और खनिज द्रव्यों के प्रयोग वणित हैं। वानस्पतिक द्रव्यों से निर्मित स्वरस, क्वाथ, कल्क, चर्ण, वटी, आसव, आरिष्ट, घत और तेल की कल्पनाएं दी गई है । क्षारनिर्माण और क्षार का स्थानीय और आभ्यंतर प्रयोग भी बताया गया है। अग्निकर्म सिरावध और जलौकावचारण का विधान भी दिया गया है। अनेक प्रकार के खनिज द्रव्यों का औषधीय प्रयोग कल्याणकारक में मिलता है। ४. यदि इस ग्रन्थ का रचनाकाल ८वीं शती सही है, तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि रस (पारद) और रसकर्म (पारद का मूर्छन, मारण और बंध, इस प्रकार त्रिविधकर्म, रससंस्कार) का प्राचीनतम प्रामाणिक उल्लेख हमें इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है। इस पर एक स्वतंत्र अध्याय ग्रन्थ के 'उत्तरतंत्र' में २४वां परिच्छेद 'रसरसायनविध्य धिकार' के नाम से दिया गया है। कुल ५६ पद्यों में पारद संम्बधी रसशास्त्रीय' सब विधान वणित हैं। ५. जैन सिद्धांत का अनुसरण करते हुए कल्याणकारक में सब रोगों का कारण पूर्वकृत "कर्म" माना गया है। जैन प्राच्य विद्याएँ १६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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