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________________ 'नब्बाध्य आसम् (जै० व्या० १/२/81) सूत्र के आधार पर पुल्लिग में निर्दिष्ट करण, अधिकरण तथा कतृ संज्ञाओं से नपुंसकलिंग में निर्दिष्ट अपादान संज्ञा का बाध होता है। अभयनन्दी की वृत्ति से उपयुक्त तथ्य सुस्पष्ट है।' दिवःकर्म' (जै०व्या०१/२/११५) सूत्र के अनुसार 'अक्षान् दीव्यति' प्रयोग उचित है किन्तु 'नब्बाध्य आसम्' सूत्र के आधार पर नपुंसकलिंग में निर्दिष्ट कर्म सज्ञा का पल्लिग में निर्दिष्ट करण सज्ञा से बाध होता है तथा अक्षः दीव्यति प्रयोग की भी प्राप्ति होती है। जैनेन्द्र व्याकरण में दी गई करण कारक की परिभाषा में 'करण' शब्द नपुंसकलिंग में निर्दिष्ट है। ऐसी स्थिति में नपुंसक करण संज्ञा का 'नब्बाध्य आसम्' सूत्र के आधार पर अनवकाश सम्प्रदान संज्ञा से निश्चय ही बाध होना चाहिए किन्तु अभयनन्दी ने 'साधकतमं करणम्' (जै० व्या० १/२/११४) सूत्र की वृत्ति में कहा है-पुल्लिग निर्देशः किमर्थः ? परिक्रयणमित्यनवकाशया सम्प्रदानसञया बाधा मा भूत् । 'ध्यपायेध्रुवमपादानम्' (जै० व्या० १/२/११०) सत्र की वृत्ति में भी अभयनन्दो ने 'पुल्लिगया करण-सज्ञया बाधात्' कहा है। अभयनन्दी के उपर्युक्त कथनों से यह सुस्पष्ट है कि प्रारम्भ में जैनेन्द्र व्याकरण में 'साधकतमःकरणः' स त्रपाठ था जो कालान्तर में विकृत होकर 'साधकतमं करणम्' हो गया। 'करण' शब्द के पुल्लिग में निर्दिष्ट होने पर ही अनवकाश सम्प्रदान संज्ञा से करण-सज्ञ: का बाध नहीं होगा तथा 'शताय परिक्रीतः' प्रयोग के साथ-साथ 'शतेन परिक्रीतः' प्रयोग भी उचित होगा। समास सूत्र पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के तृतीय पाद, चतुर्थ अध्याय के द्वितीय तथा तृतीय पादों में अधिकांश समास सम्बन्धी नियमों को प्रस्तुत किया है । समास-सम्बन्धी अन्य कुछ नियम जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद, चतुर्थ पाद, चतुर्थ अध्याय के चतुर्थ पाद तथा पंचम अध्याय के द्वितीय तथा चतुर्थ पादों में भी उपलब्ध होते हैं। जैनन्द्र व्याकरण के समास सूत्रों का आरम्भ ‘समर्थः पदविधिः (जै० व्या० १/३/३१) परिभाषा सूत्र से होता है ! अष्टाध्यायी एव जैनेन्द्र-व्याकरण के अधिकांश समास सूत्रों में पर्याप्त साम्य है किन्तु संक्षेप तथा सरलता के उद्देश्य से जैनेन्द्र-व्याकरण के कुछ समास-सूत्र विशिष्ट हैं। जैनेन्द्र-व्याकरण की रचना के समय पूज्यपाद देवनन्दी ने संक्षेप की ओर अत्यधिक ध्यान दिया है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अन्य सूत्रों के समान समास-स त्रों में भी लघु-संज्ञाओं का प्रयोग किया है। उदाहरणतः उन्होंने समास के लिए स,१२ १. नपा निर्देश: किमर्थः । वक्ष्यमाणाभि : संज्ञाभिर्बाधा यथा स्यात् । धनुषा विध्यति पुलिंगया करणसंज्ञया बाधात् । कांस्यपान्यां भुङ्क्ते । पुलिङ्गाऽधिकरण संज्ञेव । धनुविध्यतीति कर्तृ संज्ञा इहगां दोग्धि पय इति परत्वात्कर्मसंज्ञा । जै० म० ०१/२/११०. २. नपा निर्देशात् करणत्वमपि । वही, १/२/११५. ३. साधकतमं करणम्, जै० व्या० १/२/११४. ४. परिक्रयणम्, वही, १/२/११३. ५. ज.न्या१/३/१-१०५. ६. वही, ४/२/६५, १३१, १३३-१५६. ७. वही, ४/३/६, १०, ११६, १२०-१७५, १७६-१९६, २०२-२१४, २१८-२२४, २२७, २२८,२३०-२३२, २३४. ८. वही, १/२/१३२-१४८. १. वही, १/४/७८-१०८, १५१-१५३. १०. वही, ४/४/१२८, १३०.१३३. ११. वही. ५/२/१२५.१२७. १२. वही. ५/४/६२-६८, ७२, ७५, ८७-६५, ६७, ११६.११८. १३. सः, वही, १/३/२. १५४ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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