SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1011
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचाध्यायी एवं शब्दाणवचन्द्रिका के सूत्रपाठ में भिन्नता होने के कारण प्रत्याहार-सूत्रों में निम्नलिखित अन्तर है : (क) पंचाध्यायी के “ऋलक्' प्रत्याहार सूत्र के स्थान पर शब्दार्णवकार ने 'क्' प्रत्याहार सूत्र दिया है। (ख) शब्दार्णवकार ने अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय का भी शर प्रत्याहार के अन्तर्गत समावेश किया है। (ग) "ह य व र ट् । लण्” इन दो प्रत्याहार-सूत्रों के स्थान पर शब्दार्णवकार ने "ह य व र लण्" प्रत्याहार सूत्र दिया है। पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार भी जैनेन्द्र-व्याकरण में प्रत्याहार सूत्र थे तथा अभयनन्दी उन प्रत्याहार सूत्रों से परिचित थे। जैनेन्द्र-महावृत्ति के आरम्भ में प्रत्याहार-सूत्रों की अनुपलब्धि के विषय में उनका विचार है कि या तो अभयनन्दी ने उन सूत्रों पर टीका लिखना आवश्यक न समझा अथवा प्रत्याहार सूत्रों की व्याख्या नष्ट हो गई तथा बाद में जनेन्द्र-व्याकरण में उन प्रत्याहार सूत्रों का भी अभाव हो गया।' जैनेन्द्र -व्याकरण में प्रयुक्त संज्ञाएं जनेन्द्र-व्याकरण में उपलब्ध संज्ञाएँ अत्यन्त जटिल हैं। अनेक संज्ञाएँ सांकेतिक हैं। जनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में अष्टाध्यायी के सूत्रों से समानता होते हुए भी कई स्थानों पर संज्ञाओं की दृष्टि से नूतनता देखी जाती है । इन संज्ञाओं के कारण ही जनेन्द्र-व्याकरण अन्य व्याकरणों से भिन्न मौलिक व्याकरण-ग्रन्थ कहा जाता है। जैनेन्द्र-व्याकरण की कतिपय संज्ञाएं एकाक्षरी तथा बीजगणितीय हैं। अष्टाध्यायी में अधिकांश संज्ञाएँ अन्वर्थक हैं किन्तु यहाँ पर ये संज्ञाएँ सार्थक या अन्वर्थक नहीं हैं। साधारण अध्येता के लिए इन संज्ञाओं को प्रथम दृष्टि में ही समझना कठिन है । इन्हीं संज्ञाओं के कारण यह व्याकरण-ग्रन्थ क्लिष्ट बन गया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने पत" एवं कर्मप्रवचनीय" संज्ञाओं को अनावश्यक जानकर जनेन्द्र-व्याकरण में स्थान नहीं दिया है। जैनेन्द्र-व्याकरण में प्रयक्त संज्ञाओं को निम्ननिर्दिष्ट पाँच वर्गों में विभक्त किया जा सकता है१. परम्परा से प्राप्त संज्ञाएँ पज्यपाद देवनन्दी ने प्रातिशाख्यों से अनुदात्त', अनुस्वार', उदात्त', कृत्', ति', द्वन्द्व', पद', विभक्ति', विराम", विसर्जनीय" एवं स्वरित संज्ञाओं का ग्रहण किया है तथा अष्टाध्यायी में प्रयुक्त अधिकरण", अपादान", इत्", करण", कर्ता", कर्म, टि भयवार १. मीमांसक, युधिष्ठिर, जं० मा वृ०, भूमिका, १० ४४.४५. २. तुलना करें-जै० व्या० १/१/१३, ऋग्वेद प्रातिशाख्य ३/१, सम्पा० सिधेश्वर भट्टाचार्य, वाराणसी, १६७०. ३. तु०-वही, ५.४.७; वही, १५. ४. तु०-वही, १.१.१३ वही, ३.१. ५. त०-वही, २.१.८० वाजसनेयि प्रातिशाख्य १.२७; सम्पादक-बी. वेङ्कटराम शर्मा, मद्रास, १९३४. ६. तु. वही, १.२,१३१;क्तन्त्र २६, सम्पादक-सूर्यकान्त, देहली. १९७०. ७. तु०-वही, १.३.६२; वा० प्रा० ३.१२७. ८. तु-वही, १.२.१०३: वही, ३.२., ८.४६. ६. तु०-वही, १.२.१५७: वही ५.१३. १०. तु.-वही, ५.४.१६; ऋक्त० ३६. ११. तु०-बही, ५.४.१६; पथर्ववेद प्रातिशाख्य १.५ सम्पा.-हिस्ट्नी -१८६२. १२. तु०-वही, १.११४; प्राति० ३.१. १३. तु०-वही. १.२.११६; प्रष्टा० १.४.४५. १४. त०-वही, १.२.११०; वही, १.४॥२४. १५. तु०-वही, १.२.३; वही, १.३.२, १६. तु.-वही, १.२.११४: वही, १.४४२. तु०- वही, १.२,१२५; वही, १.४.५४. १८. तु०-वही, १.२.१२०: वही, १.४.४६. १६. तु०-वही, १.१६५; बही, १.१.६४. २०. त०-वही, १.२.१०७; वही. १.४.१८, २१. तु०-वही, ३.१.८१; बही, ४.१.१६३. अन प्राच्य विद्याएं ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy