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________________ पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार जैनेन्द्र-व्याकरण से पूर्व पंचपादी एवं दशपादी उणादिपाठ विद्यमान थे। पंचपादी के प्राच्य, औदीच्य एवं दाक्षिणात्य, तीनों पाठ जैनेन्द्र-व्याकरण से पूर्व रचे जा चुके थे। पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने जैनेन्द्र-महावृत्ति में उपलब्ध 'अस् सर्व धुभ्यः' उणादिसूत्र की पंचपादी के प्राच्य, औदीच्य, दाक्षिणात्य पाठ तथा दशपादी उणादिपाठ के सूत्रों से तुलना की हैजै०म०६० अस सर्वधुभ्यः, जै० म० वृ. १/१/७५ पंचपादी प्राच्यपाठ सर्व धातुभ्योऽसुन् । ४/१८८ पंचपादी औदीच्यपाठ असुन्/क्षीरतरङ्गिणी, पृ० ६३ पंचपादी दाक्षिणात्यपाठ असुन्/श्वेत० ४/१६४ दशपादी पाठ असुन्/8/४६ उपर्युक्त सूची से स्पष्ट है कि 'सर्वधातुभ्यः' अंश केवल पंचपादी के प्राच्यपाठ में ही है तथा जैनेन्द्र-महावृत्ति में विद्यमान “सर्व धुम्यः' अंश पर इसका पूर्ण प्रभाव है। उपर्युक्त आधार पर पं० युधिष्ठर मीमांसक का कथन है कि “जैनेन्द्र उणादिपाठ पंचपादी के प्राच्यपाठ पर आश्रित है।" लिङ्गानुशासन पाठ जैनेन्द्र-व्याकरण का लिङ्गानुशासन-पाठ सम्प्रति अनुपलब्ध है। पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण पर लिङ्गानुशासन की रचना की थी। इस विषय में पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं-' (क) प्राचीन आचार्यों के लिङ्गानुशासनों की ओर संकेत करते हुए वामन ने अपने लिङ्गानुशासन का भी उल्लेख किया है (व्याडिप्रणीतमथ वाररुचं सचान्द्र जैनेन्द्र लक्षणगतं विविधं तथाऽन्यत् लिङ्गस्य लक्ष्म.. . इहार्याः ॥३१॥)। (ख) अभयनन्दी की महावृत्ति में कहा गया है कि गोमय आदि शब्दों में दोनों लिङ्ग मिलते हैं, तथा उनका ज्ञान पाठ से करना चाहिए (गोमयकषायकार्षापण कुतपकवाटशंखादिपाठादवगमः कर्तव्यः-जै० म० वृ० १/४/१०८) । पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार उपर्युक्त उद्धरण में पाठ शब्द लिङ्गानुशासन पाठ का ही द्योतक है क्योंकि पुसि चार्धर्चाः' (जै० व्या० १/४/१०८) सूत्र पर अष्टाध्यायी के समान जैनेन्द्र-व्याकरण में कोई गण न होने के कारण इसका पाठ लिङ्गानुशासन से ही संभव हो सकता है। (ग) हेमचन्द्र ने स्वीय लिङ्गानुशासन के स्वोपज्ञ-विवरण में नन्दी के नाम से एक उद्धरण दिया है "भ्रामरं तु भवेच्छुक्लं क्षौद्र तु कपिलं भवेत्” इति नन्दी। (श्रीहैमलिङ्गानुशासनविवरण, पृ० ८५) पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार उपर्युक्त पाठ पूज्यपाद देवनन्दी के लिङ्गानुशासन का ही है । उपयुक्त उद्धरण से यह सुस्पष्ट है कि पूज्यपाद-देवनन्दी-कृत लिङ्गानुशासन छन्दोबद्ध था। हेमचंद्र के लिङ्गानुशासन-विवरण में उपलब्ध-"नंदिन: गुणवृत्तस्त्वाश्रयलिङ्गता स्वादुरोदनः, स्वाद्वी पेया, स्वादु पयः ॥"" उद्धरण के आधार पर पं० युधिष्ठिर मीमांसक का कथन है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने लिङ्गानुशासन पर कोई व्याख्या भी लिखी थी तथा हेमचंद्र ने उपर्युक्त पंक्तियों में जैनेन्द्रलिङ्गानुशासन की व्याख्या की ओर ही संकेत किया है।' पूज्यपाद देवनंदी ने इष्टदेवता स्वयम्भू को नमस्कार करते हुए जैनेन्द्र-व्याकरण का आरम्भ किया है। प्रथम सूत्र में जैन धर्म के प्रसिद्ध सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' का उल्लेख पूज्यपाद देवनंदी के जैन-मतावलम्बी होने का प्रत्यक्ष १. मीमांसक, यूधिष्ठिर, सं० व्या० शा० इ०, दि. भा, पृ० २४४. २. वही। ३. मीमांसक, युधिष्ठिर, जै० म० वृ०, भूमिका, पृ० ४६. ४. हेमचन्द्र, श्रीहेमलिङ्गानुशासन विवरण, पृ० १०२. ५. मीमांसक, युधिष्ठिर, जै० म० वृ०, भूमिका, प० ४६. ६. लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निरवद्याऽवभासते। जैन धर्म एवं आचार १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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