________________
विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियां : ६६
दिवगंत के वर्तमान प्रतिनिधि
श्रीब्रजलाल जी महाराज और श्रीमधुकर मुनिजी, व्यावहारिक दृष्टि से स्वर्गीय आत्मा के गुरु-भ्राता होते हैं परन्तु उक्तमुनि ने उनमें भ्रातृत्व का नहीं, गुरुत्व का ही दर्शन किया है. उनकी सेवा में सदैव दत्तचित्त, उनकी आज्ञापालन के लिए सतत सतर्क, सर्वतोभावेन उनके श्रीचरणों में सबकुछ अर्पण—यह सब गुरुशिष्य के पवित्र सम्बन्ध का मूल्यांकन है, जिसमें मेरे दोनों स्नेही सहयोगी खरे उतरे हैं. मैं अमर विश्वास के साथ कह सकता हूँ-स्वर्गीय आत्मा के पुनीत दर्शनों का लाभ आज भी उनका भक्तमंडल, उक्त मुनि-युगल में कर सकता है. 'गुरुत्वं शिष्यरूपेण चिरं विजयतेतराम्.'
茶茶茶涨满落落落落離器深紫器带张常荣譯
डॉ० इन्द्रचन्द्र,
शास्त्री, एम०ए०, पी-एच० डी० मुनि श्रीहजारीमलजी महाराज : कुछ संस्मरण
मैंने मुनि श्रीहजारीमलजी महाराज के सर्वप्रथम दर्शन १९३४ ई० में किये थे. ग्रीष्मावाकाश था, मैं ब्यावर गुरुकुल में गुरुवर पं० श्रीशोभाचन्द्रजी भारिल्ल के पास ठहरा हुआ था. आर्थिक आवश्यकता के कारण मैं किसी अस्थायी काम की खोज में था और पण्डितजी ने मुनिश्री के अल्प-वयस्क गुरुभाई मधुकर मुनि को पढ़ाने के लिए भेज दिया. मुनिश्री नागौर (मारवाड़) में थे. मैं वहाँ पहुँचा और छुट्टियां पूरी होने तक अध्यापन करता रहा. यह सिलसिला भविष्य के लिए भी चल पड़ा और मैं प्रतिवर्ष ग्रीष्मावकाश में उनके पास जाने लगा. मुनि श्रीहजारीमलजी का विहार-क्षेत्र मारवाड़ तक सीमित था. नागौर, कुचेरा, खजवाना, नौखा, हरसोलाव, जोधपुर, तिवरी, मथानिया, सोजत, किशनगढ़, अजमेर तथा ब्यावर उनके प्रिय क्षेत्र थे. दो-तीन नगरों को छोड़कर मारवाड़ का प्रनेश प्रायः अशिक्षित है. अनेक स्थानों पर पानी का संकट बना रहता है. ग्रीष्मऋतु में यह और भी बढ़ जाता है. ऐसे प्रदेश में पैदल घूमकर धर्मोपदेश करना अपने आप में बहुत बड़ी साधना है. यदि एक शब्द में कहा जाय तो मुनिश्री सच्चे स्थानकवासी साधु थे. उनकी सरलता, निरभिमानता, सादगी का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा. मिथ्या आडम्बर धर्म-संस्था की बहुत बड़ी शक्ति है. इसके बिना उसका प्रचार नहीं हो पाता और प्रचार के बिना धार्मिक संगठन नहीं टिक सकता. किन्तु वही इसके पतन का कारण भी है. साधक बाह्य-कामनाओं से विरक्त होकर त्याग का मार्ग अपनाता है. किन्तु एक नये प्रकार की आसक्ति खड़ी हो जाती है. शिष्य-मोह, प्रतिष्ठा-मोह, अनुयायियों का मोह आदि उस आसक्ति के विविध रूप हैं. मुनिश्री में आडम्बर का सर्वथा अभाव था. उन्होंने न कभी तपस्या का प्रदर्शन किया, न कभी ज्ञान का और न कभी चर्या का, मैले कपड़े रखकर उन्होंने कभी मल्लधारी बनने की भी चेष्टा नहीं की. साधु-समाज से मेरा सम्पर्क बचपन से रहा है और उसका अनुकूल-प्रतिकूल दोनों प्रकारका प्रभाव पड़ा है. एक बार की बात है, जहाँ हमारा विद्यालय था, एक प्रभावशाली आचार्य का आगमन हुआ. विद्यार्थियों के लिए नाश्ता करने से पहले व्यायाम करना होता था, फिर मुनिदर्शन. उसके पश्चात् नाश्ते की अनुमति मिलती थी. आचार्यश्री के साथ लगभग २० साधु थे. व्यायाम के कारण थकावट और भूख पहले ही सताने लगती थी. ऐसी स्थिति में प्रत्येक साधु को तीन बार उठ बैठकर वन्दना करना अर्थात् साठ बैठकें और लगाना-बस की बात नहीं थी. परिणामस्वरूप, पूरी विधि का पालन किये बिना केवल हाथ जोड़कर उस नियम को निभाया जाने लगा. इस बात की तुरन्त शिकायत हो गई. एक दिन संस्था के अध्यक्ष की उपस्थिति में आचार्यश्री के सामने हमारी पेशी हुई और यह पूछा गया कि हमें वन्दना करना आता है या नहीं ? प्रत्येक विद्यार्थी ने विधिपूर्वक वन्दना करके इस प्रश्न का उत्तर दिया. आचार्यश्री ने पुनः पूछा-प्रतिदिन प्रत्येक साधु को इस प्रकार वन्दना क्यों नहीं की जाती ? मेरे मन में इस की भयंकर प्रतिक्रिया हुई और उसके संस्कार अबतक
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org