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________________ डा० गोवर्धन शर्मा : अपभ्रश का विकास : १०७ प्राकृत का साहित्य पांच सौ ईस्वी के बाद भी लिखा मिलता है. वाक्पतिराज के 'गउडवहो' का समय सातवी, आठवीं सदी माना जाता है. कौतूहल कृत 'लीलावईकहा' भी निःसंदेह उत्तरकालीन रचना है. प्राकृत व्याकरण के अध्ययन के फलस्वरूप दक्षिण भारत के अठारहवीं शती के एक कवि रामपाणिधाय ने 'कसवहो' व 'उसाणिरुद्ध' नामक दो ग्रंथों का भागवत पुराण के आधार पर प्राकृत में प्रणयन किया अर्थात् प्रथम ईस्वी शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक सामान्यतः और अठारहवीं शती के आरम्भ तक विरलतः प्राकृत साहित्य लिखा जाता रहा.' इसी प्रकार संस्कृत भाषा में अद्यावधि काव्य-सृजन होता ही है. अपभ्रंश के संबंध में भी प्राकृत की बात दोहराई जा सकती है. डा० उपाध्ये ने योगीन्दु के परमप्पयासु और योगसार का समय छठी शताब्दी के लगभग माना है. तब से लेकर तेरहवीं शती तक विशेष रूप से और सत्रहवीं शती तक अपवाद रूप से अपभ्रंश में काव्यरचना होती रही है. भगवतीदास का मृगांकलेखाचरित या चन्द्रलेखा विक्रम संवत् १७०० में लिखा गया है.२ जिस प्रकार संस्कृत और प्राकृत में रचनायें कुछ काल तक समानान्तर रूप से लिखी जाती रहीं, उसी प्रकार अपभ्रंश का भी प्राकृत के साथ प्रचार रहा. उसी प्रकार अपभ्रंश का आधुनिक आर्य भाषाओं के पूर्व रूपों के साथ भी प्रचलन रहा. अपभ्रंश यद्यपि १२ वीं शती से बोलचाल की भाषा नहीं थी, केवल साहित्य की भाषा थी, फिर भी वह पन्द्रहवीं शती तक स्वतंत्र रूप से अथवा नव्यतर प्रादेशिक भाषाओं में घुलमिलकर प्रयोग में आती रही है. इस तथ्य का समर्थन हमें सिद्ध-साहित्य से मिलता है. सिद्धों की रचनाओं के दो रूप उपलब्ध हैं-[१] दोहाकोष. [२] चर्यापद. डा० सुनीतिकुमार चाटुा ने दोहाकोषों और चर्यापदों में ही दो प्रकार की उपभाषाओं की ओर संकेत किया है, चर्यापदों की भाषा पूर्वी है, जिसे वे पुरानी बंगाली कहते हैं. क्यों कि उसमें बहुत से क्रियारूप, शब्दरूप तथा ऐसे मुहावरे हैं जिनकी परम्परा पुरानी बंगाली में चली आई है. दोहाकोषों में एक ही भाषा है पश्चिमी अथवा शौरसेनी अपभ्रंश. 'डाकार्णव' के सम्पादक डा० नगेन्द्रनारायण चौधरी डाकार्णव की भाषा को शैरसेनी अपभ्रंश पर आधारित मानते हैं. किन्तु कहीं-कहीं पर उसमें पूर्वी बंगाल के शब्दरूपों, उच्चारणों तथा मुहावरों का प्रभाव मानते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए डा. धर्मवीर की मान्यता है-दोहा लिखते समय सिद्धों ने पश्चिमी या शौरसेनी अपभ्रंश प्रयोग किया. क्योंकि वह भाषा दोहों में मंज चुकी थी, किन्तु जब उन्होंने गेय पद लिखे तो स्थानीय बोली को आधार बनाया. किन्तु चूंकि वह बोली अभी काव्य में मंजी नहीं थी अत: स्थान-स्थान पर उन्होंने अभिव्यक्ति और काव्यपरिष्कार के लिये शौरसेनी का सहारा लिया.५ भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में उकारबहुला भाषा का प्रयोग हिमवत्, सिन्धुसौवीर और उनके आश्रित देशों के लोगों के लिये करने का आदेश दिया है.६ इससे ज्ञात होता है कि अपभ्रंश की विशेषतायें भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों में प्रगट होने लग गई थी. इस प्रकार उकार-बहुला अपभ्रंश की प्रवृत्ति पर हाल में शंकायें उठाई गई हैं. डा० परशुराम ल० वैद्य ने विद्वानों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि अपभ्रंश के अतिरिक्त प्राकृत 'धम्मद' 'ललितविस्तर' और 'सद्धर्मपुण्डरीक' जैसे बौद्ध ग्रंथों में भी उकार की प्रवृत्ति पाई जाती है. अतः उकार-बहुला भाषा का अर्थ केवल अपभ्रंश ही लगाना ठीक नहीं होगा. नामवरसिंह ने विस्तारपूर्वक बताया है कि प्राकृत धम्मपद की रचना पेशावर के १. डा० हरदेव बाहरी : प्राकृत और उसका साहित्य-पृ०१४२. २. डा० हरिवंश कोछड़, अपभ्रंश साहित्य-पृ०१७ ३. चटर्जी : आरिजिन एंड डेवलपमेंट आफ बेंगाली लंग्वेज, पृ० ११४. ४. डा० नांगेन्द्रनारायण चौधरी-डाकार्णव पृ०१६. ५. डा० धर्मवीर भारती : सिद्ध साहित्य पृ० २८४. ६. भरतः वाटयशास्त्र १७-६२ हिमवसिन्धु सौवीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः । उकारबहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत् ।। MEW m . Jain Education instead oma For Ve rsunarose or www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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