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शान्तिलाल भारद्वाज 'राकेश' : मेवाड़ में रचित जैन-साहित्य : ८१७ १६. संयोग बत्तीसी-सुप्रसिद्ध जैनकवि मानमुनि ने उदयपुर में 'संयोग बत्तीसी' की रचना की. इस एक ही कृति को निम्न चार नामों से जाना जाता है;
१. मानमंजरी २. संयोग द्वात्रिंशिका ३. संयोग बत्तीसी
४. मान बत्तीसी यह मानकवि वही मानसिंह हैं जो 'बिहारी सतसई' के टीकाकार और राजविलास के रचयिता हैं. मानकवि नाम के एकाधिक कवि राजस्थान में हुये हैं इसलिये कुछ विद्वान सतसई के टीकाकार और राजविलास के रचयिता को एक नहीं मानते. मानकवि को अलंकारशास्त्र का अच्छा ज्ञान था. संयोग बत्तीसी नायिका-भेद का एक श्रेष्ठ काव्य है. मानमुनि विजयगच्छ के संत थे और विजयगच्छ का उदयपुर में बड़ा प्रभाव रहा है. २०. अञ्जनासुन्दरिका रास-रास के रचनाकार का नाम भुवनकीर्ति है. दिगम्बर और श्वेताम्बर समाज में भुवनकीर्ति नाम के भी एकाधिक कवि मिलते हैं परन्तु 'अञ्जनासुन्दरिका रास' के रचयिता भुवनकीति खरतरगच्छीय जिनरंग सूरि के आज्ञानुवर्ती थे. बीकानेर के मुख्यमंत्री कर्मचन्द्र के वंशज श्री भागचन्द्र के लिये उदयपुर में इस ग्रन्थ की रचना की गई. ग्रन्थ का रचनाकाल सं० १७०६ है. उन दिनों उदयपुर में महाराणा जगतसिंह का शासन था. उक्त रास में रामकथा के प्रमुख पात्र श्री हनुमान की माता अञ्जना की कथा है, जिस चरित्र को जैन पौराणिक मान्यताओं के अनुरूप ढाला गया है. २१. पद्मिनी चरित्र-सं० १७०७ में कवि लब्धोदय ने उदयपुर में इस कृति की रचना की. लब्धोदय की कवित्व शक्ति को जनसाहित्य में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त है. वे लगभग ४०-५० वर्षों तक साहित्यसृजन में लगे रहे. वे ६ उल्लेखनीय रासों के रचयिता माने गये हैं. उनका विहार मेवाड़ में अधिक हुआ. पद्मिनी चरित्र की रचना सं० १७०६ में शुरु हुई और चैत्रीपूनम सं० १७०७ को उसकी रचना समाप्त हुई. उदयपुर, गोगूदा और धूलेवा ही लब्धोदय की साहित्य-रचना के प्रमुख केन्द्र रहे हैं. २२. धन्ना का रास-कविखेता ने वैराठ (बदनोर के पास) सं० १७३२ में उक्त रास की रचना की. रास में बिहार के राजगृहनगर के सुप्रसिद्ध श्रेष्ठ धन्ना के चरित्र तथा उसकी समृद्धि का वर्णन है. समृद्ध और सम्पन्न व्यक्ति के लिये आज भी धन्ना सेठ की जो उपमा दी जाती है वह यही धन्ना श्रेष्ठी हैं. वैराठ वैसे जयपुर में है लेकिन उक्त रास में ही एक उल्लेख वैराठ नगर की स्थिति को स्पष्ट कर देता है :
"मेदपाट में जाणिये रे वांको गढ़ वैराठ।" अर्थात् यह वैराठ मेदपाट (मेवाड़) का ही है. २३. प्रांतरे का स्तवन-कवि तेजसिंह ने १७३५ में नांदेस्मां (जिला उदयपुर) में उक्त स्तवन की रचना की. मुनि तेजसिंह लोंकागच्छ के १८ वीं सदी के प्रमुख आचार्य थे. कवि ने कोठारी ठाकुरसी के लिये उक्त स्तवन की रचना की. इनकी अन्य रचनायें भी उपलब्ध हैं जिनमें 'गुरुगुणमालाभास' एक ऐतिहासिक कृति है. २४. भीमजी चौपाई-प्रस्तुत कृति में भीमजी का ऐतिहासिक वर्णन दिया गया है लेकिन प्रति सम्मुख न होने से भीमजी के सम्बन्ध में अधिकृत रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता. भीमजी नाम का कोई आसपुर का शासक अवश्य हुआ है. सं० १७४२ में पुंजपुर (डूंगरपुर) में यह कृति रची गई. कृति में उल्लेख मिलता है कि इसका रचनाकार मुनि कीर्तिसागर सूरि का कोई शिष्य था.
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