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________________ wwwwww Jain Education nier ८६२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : चतुर्थ अध्याय आचार्य हरिभद्र ने इन्हें भ्रष्ट और सत्यपथ का विरोधी घोषित किया और जैनधर्म को नई दिशा देने के इस आन्दोलन को लम्बे समय तक चलाया. प्रभाचन्द्रसूरि रचित 'प्रभावक चरित्र' के अनुसार वे मेवाड़ के तत्कालीन शासक चितारि के पुरोहित थे. वे जैनागमों में सबसे पहले संस्कृत टीकाकार और जैनेतर ग्रंथों के भी सर्वप्रथम टीकाकार माने गये हैं. ब्राह्मण कुल में उत्पन्न श्री हरिभद्र सूरि ने चित्तौड़ में ही जन्म लिया और चित्तौड़ ही इनका प्रधान कार्यक्षेत्र रहा. प्राप्त जानकारी के अनुसार इन्होंने १४४४ ग्रंथ बनाये जिनमें से लगभग ८० ग्रंथ प्राप्त हैं. हरिभद्र का साहित्य - आचार्य हरिभद्र रचित ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है १. शास्त्रवार्त्तासमुच्चय २. दर्शनसमुच्चय ५. योगबिन्दु ७. अनेकान्तजयपताका ६. वेदबाह्यता निराकरण ११. संबोधसप्ततिका १३. विंशतिका प्रकरण १५. अनुयोगद्वार सूत्रवृत्ति १७. नन्दी लत १६. प्रज्ञापना सूत्र प्रदेश व्याख्या २१. पंचवस्तुप्रकरण टीका २३. श्रावकधर्म विधि पंचाशक २५. ज्ञानपंचक विवरण २७. लोकतत्त्वनिर्णय २६. दर्शन सप्ततिका ३१. ज्ञान चित्रिका ३३. षोडषक ३५. कथाकोष ६७. यशोधर चरित्र ३९. स्वान २. योगदृष्टिसमुच्चय ४. योगशतक *** ६. धर्मबिन्दु ८. अनेकान्तवादप्रकाश *** १०. संबोधप्रकरण १२. उपदेशपद प्रकरण १४. आवश्यक सूत्र बृहद्वृत्ति १६. दिग्नागकृत न्यायप्रवेश सूत्र वृत्ति १८. दशवेकालिकवृत्ति हरिभद्रसूरि विरचित ग्रंथों की संख्या प्रतिक्रमण अर्थदीपिका के आधार पर १४४४, "चतुर्दशशत प्रकरण प्रोत्तुंग प्रासादसूत्रणैकसूत्रधारः" इत्यादि पाठ के अनुसार १४०० तथा राजशेखर सूरिकृत चतुर्विंशति प्रबन्ध के आधार पर १४४० मानी जाती है. मुनि जिनविजयजी के कथनानुसार उनके उपलब्ध ग्रंथ २८ हैं जिनमें से २० ग्रंथ छप चुके हैं. सत्य के अन्वेषी - हरिभद्रसूरि के साहित्य में उनकी उदार धर्मभावना का परिचय मिलता है. वे व्यवस्था या मान्यता के परम्परागत सत्य को पहले अपने विवेक की कसौटी पर कसते थे. जो चला आ रहा है वही सत्य है, यह मान्यता आचार्य हरिभद्र की नहीं थी. २०. जम्बूद्वीप संग्रहिणी २२. पंचसूत्र प्रकरण टीका २४. दीक्षाविधि पंचाशक २६. लग्नकुण्डलिका २८. अष्टक प्रकरण ३०. श्रावकप्रज्ञप्ति ३२. धर्मसंग्रहणी ३४. ललितविस्तरा ३६. समराइच्च कहा ३८. वीरांगद कथा ४०. मुनिपतिचरित्र आदि. 'पक्षपात न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ " 'मुझे भगवान् महावीर के प्रति कोई पक्षपात नहीं एवं कपिल आदि महर्षियों के प्रति कोई द्वेष भी नहीं, परन्तु जिनका *** ** www.jaintelforary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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