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डॉ. के. ऋषभचन्द्र : पउमचरियं के रचनाकाल-सम्बन्धी कतिपय अप्रकाशित तथ्य : ८८३
की होगी और उन्होंने पद्मचरितम् की रचना से उस अभाव को पूरा किया. प्रश्न यह भी हो सकता है कि श्वेताम्बरों ने भी अपना पृथक् सांप्रदायिक ग्रंथ क्यों नहीं रचा ? इसका उत्तर स्वयं श्वेताम्बरीय परम्परा में विद्यमान है. आगम साहित्य के जो भी पुराने ग्रंथ थे उन सबको श्वेताम्बरों ने अपनाये रखा, चाहे भले ही उनमें श्वेताम्बरीय कट्टरता के विरोध की भी बाते हों, परन्तु भेदभाव और कट्टरता बढ़ने पर दिगम्बरों ने उन ग्रन्थों को अप्रामाणिक घोषित करके अपने लिए पूर्व भित्ति पर नये ही साहित्य की रचना की. इस दृष्टि से श्वेताम्बरों को यह अभाव खटक ही नहीं सकता था और उनको अलग कृति रचने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी होगी. इस तरह से ५३० शक संवत् विवादास्पद हो जाता है और उसको मानने में आपत्तियां आकर खड़ी हो जाती हैं. तब फिर यही मान्य हो सकता है कि ये ५३० वर्ष कृत संवत् के यानि विक्रम संवत् के होने चाहिए. उचित यही जान पड़ता है कि या तो किसी लिपिक ने इच्छापूर्वक या किसी भूल के कारण इसे विक्रम संवत् में परिवर्तित कर दिया है. ऐसी भूल का परम्परागत एक उदाहरण भी उपलब्ध है. प्रबन्धकोष में वल्लभी के पतन का समय महावीर निर्वाण ८४५ दिया गया है जबकि विविधतीर्थकल्प में विक्रम संवत् ८४५ बतलाया गया है.' वास्तव में इसे विक्रम संवत् मानना ही ठीक है. विक्रम संवत् के अनुसार पउमचरियं का रचना काल ५३०-५७-४७३ ईस्वी सन् आता है जो सभी दृष्टियों से उचित ठहरता है और यही पउमचरियं की रचना का प्रामाणिक समय माना जाना चाहिए.
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२. हरिप्रसाद शास्त्री, मंत्रक कालीन गुजरात, भाग १, पृ० १५७.
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