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श्रीभंवरलाल नाहटा : एक जैनेतर संत कृत जम्बूचरित्र : E७५
अठारै नातां को व्यौरो
सुलतां वाच-कवित
नगर नाइका' आदि, दूसरी माता मेरी। तुम सुत की मैं नारि, प्रगट तू सासू मेरी ।। मम खांवंद घर नारिं, सौक तू सदा हमारी । तुम्हैं तात की सूता, तोहि दादी५ में धारी। मम भाई की जोय, लगै तू भावज मेरे । एते लछ तुझ माहि, कन्या ऐसी विध टेरे ।। षट नाता षट विध भए, मान धर्म दियौ खोइ । ज्ञान भगति वैराग ल्यों, जब ध्रम साबती होइ ।।४।।
सुलतां के यह वचन सुनि, पूछन लागौ कुमेर । कहौ तें कहियो कहा, सो अब भाखौ फेर ॥४२।।
सुलतां वाच-कबित्त वेश्या द्वारे वास, कहुं तोहि भड़वौ' भाई । बाप' कहूँ मैं तोहि, तुम्हें घर मेरी माई ॥ खांवंद प्रगट मोर, पल में बंधी तेरै । सासू को भरतार, सदा सुसरौ५ है मेरै ।। मम दादी को खसम, तास विध दादी कहीए। ए साचौ अपराध, तज्यां विन सुख नहि लहिये ।। भगति विना भाग नहीं, ये षट पाप अघोर । अरक विना क्यूँ नास ह, रजनी तम को जोर ॥४३।।
सोरठा इह सुण वचन कुमेर, वज्र मारयो सो ह गयो। सुलत भाषै फेर, नानड़ीया क लाडवै ।। ४४।।
कवित्त शिशु भाइ' समभाई, वीर२ मम माता जायो। फुनि भाई को बीज, भतीजी तासू गायो। जानि सौक को पूत, सोई साकूत विचारौ । मम खांवंद को वीर, सही देवर है म्हारै । दादी सुत काकी कहूँ, कैसी विधि तोहि लाडीए । ऐसो ज्ञान विचार के, संग तुम्हारो छाडीए ॥४५।।
सोरठा गणिका अरु कुमेर, कहै हम कैसे निसतरै । सुलतां कहें यूं टेर, त्याग करौ राम भजी ।।४६।।
दोहा जंबूसर बुधिवान अति, दीयौ भारज्या ज्ञान । तिरीया मन आनंद बढयो, गयो सकल अज्ञान ॥४३॥
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