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________________ ६२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय एक परमाणु मात्रनी मले न स्पर्शता, पूर्ण कलंक रहित अडोल स्वरूप जो । शुद्ध निरजन चैतन्य मूर्ति अनन्यमय, अगुरुलघु, अमूर्त सहज पदरूप जो । पूर्वप्रयोगादि करणनां योगथी, ऊर्ध्व गमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो। सादि अनन्त, अनन्त समाधि सुखमां, अनन्त दर्शन, ज्ञान अनन्त सहित जो। जे पद श्री सर्वज्ञे दीटुज्ञानमां, कही शक्या नहीं ते पण श्री भगवान जो । तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुकहे ! अनुभवगोचर मात्र रह्यते ज्ञान जो । एह परमपद प्राप्तिनु कर्य ध्यान में, गजा वगर ने हाल मनोरथ रूप जो। तो पण निश्चय 'राजचन्द्' मनने रह्यो, प्रभु-आज्ञाए थाशु तेज स्वरूप जो । स्वामीजी के कृतित्व के नमूने वितर वारिद ! वारि दवातुरे, चिर-पिपासित-चातक-पोतके । प्रचलिते पवने क्षणमन्यथा, क्व च भवान् क्व पयः क्व च चातकः । इस श्लोक के भावों पर : वेग पधारो रे मेघराज ! मया कर काज सुधारो रे । ध्रुव । मैं बालक मति-हीन दीन अति, यह है काज तुम्हारो रे। तड़फ रया है प्राण हमारा, मती विसारो रे । वेग० । तुम-घर माही कोई कमी ना, भर्या अखुट भंडारो रे। पर-उपकारी कारज सारे, लेई उधारो रे । वेग० । करू अरजी मैं गरजी होकर, और नहीं श्राधारो रे । टुक एक महर नजर कर मुझ पर, दुखड़ो टारो रे । वेग० । जो नहीं वा इण अवसर तो, नहीं है म्हारो सारो रे।। दक्षिण-पवन झपाटे सटके, होसी उधारो रे । वेगः । फूट जगत में घर की फूट बुरी है । ध्रुव । फूट बुरी है श्रापस केरी, सोचो आप जरूरी । एक-एक से वैर बढ़ाकर, भूले काम जरूरी । जगत । शांति का नाश करे इक छिन में, फूट राक्षसी पूरी । कलह बढ़ावत, प्रेम घटावत, बात बनावत कूरी । जगत । फूट भई रावन के घर में, भयो विभीषण दूरी । सोवनी लंक गमाय अाजलो बाजत अपजस तूरी । जगत । कौरव-पांडव फूट भई जब, झगडया बात बहरी। 'भीषम' 'करण' से वीर खपाये, मानी न बात गरूरी । जगत । ASEAN SEA Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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