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८४८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
१. श्रेणिकचरित्र (रचनाकाल सं० १८२७) २. कर्णामृतपुराण , , १८२६) ३. चंपकश्रेष्ठि व्रतोद्यापन ४. सरस्वती कल्प ५. नेमिचन्द जीवन मेरी साहित्य-शोध-यात्रा में निम्न कृतियां उपलब्ध हुई हैं जो अद्यावधि अज्ञात थीं. भरत बाहुबली संवाद-वस्तुत: यह विजयकीत्ति की मौलिक रचना नहीं हैं. सं० १७०४ भादों सुदि १३ भुसावर (राजस्थान) में विश्वभूषण मुनि द्वारा रचित "भरत बाहुबली रासो'का सुसंस्कृत रूप है जैसा कि वह स्वयं ही इन शब्दों में स्वीकार करते हैं
ए संवाद सुधारि लिष्यौ है श्रीमुनिराई । विजयकीर्ति भट्टारक नागौर सवाई ।। गढ़ अजमेर सुपाट थाट रचना इह कीनी । श्रीविश्वभूषण उगति जुगति थिरता करि लहि ।। भरणे भणावे भवि सुण श्रीआदीश्वर भाण ।
भरथ अवर बाहुबली हौ कडखौ सुणत कल्याण ॥४४।। गजसुकमाल चरित्र- यह विजयकीत्तिजी की दूसरी मौलिक रचना है. इसमें गजसुकगाल मुनि का आदर्श चरित्र वणित है. भले ही यह एक व्यक्ति का चरित्र हो, पर मानवता को कवि ने साक्षात् खड़ा कर दिया है. आत्मौपम्य की प्रशस्त ओर औदार्य भावनाओं का जो चित्रण एक सर्वजनकल्याणकामी संत के माध्यम से समुपस्थित किया गया है, वह आज भी अनुकरणीय-अभिनन्दनीय है. आध्यात्मिक साधना में अनुरक्त साधक को कितनी यातनाओं का सामना करना पड़ता है ? पर अन्तर्मुखी जीवन ध्यतीत करनेवालों पर बाह्य उत्पीडन का क्या प्रभाव पड़ सकता है ? जीवन में अहिंसा और सत्य की पूर्ण प्रतिष्ठा होने पर संसार की भौतिक शक्ति ऐसी नहीं जो स्व मार्ग से विचलित करा सके. गजसुकमाल महामुनि इसकी प्रतिमूत्ति थे. अहिंसा-उनके जीवन में साकार थी. तभी तो मस्तक पर आग रखे जाने पर भी मुनिवर ने उफ तक न किया, ऐसी थी उनकी आत्मलक्षी तपश्चर्या. कविवर विजयकीत्तिजी ने आध्यात्मिक और भौतिक द्वन्दों का सामयिक परिस्थितियों के प्रकाश में जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है वह एक शब्दशिल्पी की स्मृति दिलाता है. कृति का विवरण इस प्रकार है
१. विश्वभूषण मुनि प्रणीत अज्ञात रास का अंतिम भाग इस प्रकार है
सहर सुसावर मधि राजु जाफरषां सोहै । सोहि काम सौ प्रीति राइ रांनां मन मोहै ।। ता मंत्री भगवानदास सबके सुषदाई । न्याइ नीति वर नृपन जैणसासन अधिकाई ।। वसै महाजन लोग जी दान मान सनमान | एक एक ते अगले राषै सबकी मांन ।।३७|| मूलसंग कुल प्रगट गच्छ सारद मैं राजै | जगतभूषण मुनिराज वाद विद्यापति छाजै ।। ता पट कही सुजान विश्वभूषन मुनिराई । तिन यह रच्यो प्रबन्ध भवि सुनियो मनु लाई ।। सत्रैहसै रु चिडोत्तरा भादौ सुदि सुभवार । सुकल पच्छ तेरसि भली गायौ मंगलवार ।।
-निज संग्रहस्थ हस्तलिखित गुटके से उद्धृत | विश्वभूषणजी अपने समय के विद्वान् 'ग्रंथकार थे. इनका विशेष परिचय मैंने अपने "राजस्थान का अज्ञात साहित्य वैभव" नामक ग्रंथ में दिया है.
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