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मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार: ८३३ .
ब्रजदासी किशनगढ़ की पारम्परिक सांस्कृतिक ज्योति की एक किरण थीं. उन्हें साहित्यिक अध्ययन में उल्लेखनीय अभिरुचि थी. किशनगढ़ के राजकीय सरस्वती भंडार में शताधिक हस्तलिखित प्रतियां हैं जिनकी पुष्पिकाओं में सूचित किया गया है कि ये सब इन्हीं के लिये लिखी गई हैं. यद्यपि ऐसी कृतियों में अधिकांशतः धार्मिक हैं, पर नाइका भेद, चिकित्सा, लक्षण ग्रंथ, पिंगल आदि विषयों का भी इनमें अन्तर्भाव हो जाता है. भागवत और उज्वलनीलमणि, रामायण और भक्तमाला जैसी कृतियों को सुन्दर चित्रों से सुसज्जित करवाया गया है जो उनकी कलात्मक अभिरुचि का प्रमाण है. किशनगढ़ी शैली के चित्रों का, राजस्थानी चित्रों में अपना स्वतन्त्र स्थान है, बल्कि स्पष्ट कहा जाय तो सर्वाधिक आकर्षणशक्ति इसी शैली के चित्रों में हैं. वल्लभाचार्य और उनकी परम्परा के लगभग सभी आचार्यों, भक्तों
और तदनुयायी संतों के प्रामाणिक और नयनाभिराम चित्रों का जैसा संग्रह किशनगढ़ में है वैसा अन्यत्र दुर्लभ ही है. जो चित्र ब्रजदासी के लिए विशेष रूप से कलाकारों ने तैयार किये थे उन पर चित्र-काल और भावसूचक टिप्पणी विद्यमान है. ब्रजदासी की साहित्यिक साधना के परिणाम स्वरूप अभी तक केवल भागवतानुवाद की ही चर्चा रही है. मिश्रबंधु विनोद, मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ (ले० डा० सावित्री सिन्हा) और अन्य तथाकथित इतिहासों में इनकी यही रचना स्थान पाती रही है. हिन्दी कवियित्रियों में यही प्रथम अनुवादिका है जिसने भागवत का अनुवाद गेय परम्परानुसार न कर प्रबन्धात्मक शैली को अपनाया है. डा० सावित्री सिन्हा ने अपने शोध ग्रंथ में ब्रजदासी और भागवतानुवाद पर संक्षेप में, पर सार गभित प्रकाश डाला है. मथुरावासी पं. जवाहरलालजी चतुर्वेदी ने भी 'सम्मेलन पत्रिका" के वर्ष ४६, सं० १, पृष्ठ ७५-८१ में ब्रजदासी भागवत पर विचार व्यक्त किये हैं. पर चतुर्वेदीजी ने इस लहजे में भागवतानुवाद का उल्लेख किया है जैसे सर्वप्रथम ही यह कृति प्रकाश में आ रही है, पर बात ऐसी नहीं है. इतः पूर्व कई स्थानों में उल्लिखित हो चुकी है. सम्मेलनपत्रिका में भागवत के अनुवादकों की जो सूची दी है उसमें नागरीदास का नाम नहीं है, जब कि होना चाहिए था. अस्तु. नव्य कृतियाँ-यहां ब्रजदासी की अज्ञात कृतियों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है. इन पंक्तियों के लेखक को अपनी साहित्यिक-शोधयात्रा में सालव जुद्ध, आशीष संग्रह एवम् स्फुट कवित्त उपलब्ध हुए हैं. सालव जुद्ध में पौराणिक प्रसंग को लेकर इनने अपनी काव्यप्रतिभा का प्रदर्शन किया है. रचना भक्तिरस से ओतप्रोत है. इससे पता चलता है कि वह न केवल सफल अनुवादिका ही थीं अपितु स्वतन्त्र ग्रंथकर्ती भी थीं. सूचित कृति का विवरण इस प्रकार है
श्रीगणेशायनमः, श्रीराधेकप्ण जयति, श्रीगुरुभ्यो नमः
__ अथ सालवजुद्ध लिष्यते गुरु दयाल कीजै कृपा निज आश्रम मो जांनि । भई इच्छा जस कहन की जो हरि जसकी षांनि ।।१।। हरि गुन को कहिकै सकै कौंन कहन सामर्थ । सैस महेस सुरेस हू अजहं लहत न अर्थ ।।२।। पंग चहत परबत चढ्यौ सूर दिव्य द्रग पाय । चुहा सिंधु चाहत तिर्यो हूं जु चहत गुन गाय ॥३॥ जिहको जस चाहत कियौ सौ अब होहू सहाय । गुरु मुष तै आज्ञा लहैं तब हौं करौं उपाय ।।४।। गवरी नंद आनन्द जुत सिव सुत सिद्धि गनेस । जय जय सुरगन नमत हूं जय जय सबें रिषेस ।।५।। श्रीव्रषभानकुमारी तुम नंदलाल तुम प्रांन । यह इच्छा पूरन करौ मो मति मंद हि जांन ।।६।।