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७७४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
मल्लिषेणसूरि ने 'विद्यानुवाद' और 'भैरव पद्मावतीकल्प' जैसे बड़े ग्रंथ और आयशास्त्र का 'आयसद्भाव' और 'जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला' जैसे तांत्रिक ग्रंथों की रचना की है यह उल्लेखनीय है. कहा जाता है कि उनमें निर्दिष्ट मंत्र और विद्या विद्याप्रवाद' पूर्व में विद्यमान थीं. जैनाचार्यों के रचे हुए कथा आदि अनेक ग्रन्थों में मन्त्रवादियों के प्रचुर वर्णन प्राप्त होते हैं. 'कुवलयमाला' में जो एक सिद्ध पुरुष का उल्लेख मिलता है उसे अंजन, मंत्र, तंत्र, यक्षिणी, योगिनी आदि देवियाँ सिद्ध थीं. 'आख्यानकमणिकोश' में भैरवानन्द का वर्णन, 'पार्श्वनाथचरित' में भैरव का वर्णन, 'महावीरचरित' में घोरशिव का वर्णन, 'कथारत्नकोश' में जोगानन्द और बल वगैरह के वर्णन मिलते हैं, वे वैसी ही मंत्रविद्या के साधक पुरुष थे. 'बृहत्कल्पसूत्र' विधान करता है कि
- "विज्जा-मंत-निमित्ते हेउसस्थट्टदसणट्ठाए ॥" अर्थात्-दर्शनप्रभावना की दृष्टि से विद्या, मन्त्र, निमित्त और हेतुशास्त्र के अध्ययन के लिये कोई भी साधु दूसरे आचार्य या उपाध्याय को गुरु बना सकता है.. 'निशीथसूत्र-चूणि' में तो आज्ञा दी है कि
विज्जगं उभयं सेवे ति–उभयं नाम पासस्था गिहत्था, ते विज्जा-मंत-जोगादिणिमित्तं सेवे।” (१-७०) अर्थात्-विद्या-मंत्र और योग के अध्ययनार्थ पासत्था साधु एवं गृहस्थों की भी सेवा करनी चाहिए. स्पष्ट है कि, जैनशासन की रक्षा के लिये मंत्र, तंत्र, निमित्त जानना जरूरी था परन्तु उसका दुरुपयोग करने का निषेध था. आ० भद्रबाहुस्वामी को आर्य स्थूलिभद्र को पूर्वो का ज्ञान देते हुए उनके द्वारा किये गये विद्या के दुरुपयोग के कारण दंडस्वरूप दूसरी विद्याएँ नहीं देने का निर्णय लेना पड़ा था. यह तथ्य सूचन करता है कि, विद्या को निरर्थक प्रकाश में रखने में खूब सावधानी रखी जाती थी और शिष्यों की योग्यता देख कर ये विद्याएँ केवल दर्शनप्रभावना की दृष्टि से ही दी जाती थीं. जैनधर्म ने मन्त्रयान अपनाया तो भी उसने अपनी सैद्धान्तिक दृष्टि रखी ही है, यह भूलना नहीं चाहिए. यह पतनशील परिणामों से बिलकुल अछूता रह सका है यह उसकी विशेषता है. जैनपरम्परा की दृष्टि से ऐसी कितनीक विशेषताएँ इस प्रकार मालूम पड़ती हैं : १. मिथ्यात्वी देवों से अधिष्ठित मन्त्रों की साधना नहीं करना. २. मन्त्र का उपयोग केवल दर्शनप्रभावना के लिए ही करना. उसके सिवाय ऐहिक लाभों के लिये नहीं करना. ३. तांत्रिकपद्धति को स्वीकार नहीं करना. ४. शास्त्रों में जो ध्यानयोग अपनाया गया है उस पद्धति से पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत, इन भावनाओं की
मर्यादा में रह कर मन्त्रयोग की साधना करना. दूसरी दृष्टि से देखें तो मन्त्रविद्या एक गहन विद्या है. उसकी साधना के लिये अनेक बातों पर ध्यान देना पड़ता है. सर्वप्रथम मन्त्रसाधक की योग्यता कैसी होनी चाहिये, उसके विषय में मन्त्रशास्त्र खूब कठोर नियम बताता है. साधक में पूरा शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य होना चाहिये. मन में प्रविष्ट खराब विचारों को रोकने की और पवित्र भावना में रमण करने की शक्ति होनी चाहिये. प्राणायाम के रोचक, पूरक और कुंभक योग द्वारा मन को उन-उन स्थलों में रोकने का अभ्यास होना जरूरी है. मन्त्रसाधना करते हुये अनेक प्रकार के उपद्रव उपस्थित हों तो उसके सामने जूझने का सामर्थ्य होना चाहिये. ऐसी योग्यता प्राप्त न की हो तो वह पागल-सा बन जाता है या मरण के शरण होता है.
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