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५६६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
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प्रसन्नता की बात है कि इधर १०-१५ वर्षों से भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैन साहित्य पर भी रिसर्च किया जाना प्रारम्भ हुआ है. विद्यार्थियों का उधर और भी अधिक झुकाव हो सकता है यदि हम इन भण्डारों को शोधकेन्द्र (Research Centres) के रूप में परिवर्तित कर दें और उनको अपने शोधप्रबन्ध लिखने में पूरी सुविधाएं प्रदान करें. अब यहां राजस्थान के कुछ प्रमुख सन्तों की भाषानुसार साहित्यिक सेवाओं पर प्रकाश डाला जा रहा है : प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य जम्बूद्वीपपण्णत्ति के रचयिता आचार्य पद्मनंदि राजस्थानी सन्त थे. इसमें २३८६ प्राकृत गाथाएँ हैं जिनमें जम्बूद्वीप का वर्णन किया गया है. प्रज्ञप्ति की रचना वारा [कोटा] नगर में हुई थी. उन दिनों मेवाड़ पर राजा शक्ति या सक्ति का शासन था और वारां मेवाड़ के अधीन था. ग्रंथकार ने अपने आपको वीरनंदि का प्रशिष्य एवं बलनंदि का शिष्य लिखा है. हरिभद्र सूरि राजस्थान के दूसरे सन्त थे जो प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के जबर्दस्त विद्वान् थे. इनका सम्बन्ध चित्तौड़ से था. आगमग्रंथों पर उनका पूर्ण अधिकार था. इन्होंने अनुयोगद्वार सूत्र, आवश्यक सूत्र, दशवकालिक सूत्र, नन्दीसूत्र, प्रज्ञापना सूत्र आदि आगम-ग्रंथों पर संस्कृत में विस्तृत टीकाएँ लिखीं और उनके स्वाध्याय में वृद्धि की. न्यायशास्त्र के ये प्रकाण्ड विद्वान् थे. इन्होंने अनेकान्त-जयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश जैसे दार्शनिक ग्रंथों की रचना की. समराइच्चकहा प्राकृतभाषा की इनकी सुन्दर कथाकृति है जो गद्य-पद्य दोनों में ही लिखी हुई है. इसमें ६ प्रकरण हैं जिनमें परस्पर विरोधी दो पुरुषों के साथ-साथ चलने वाले ६ जन्मान्तरों का वर्णन किया गया है. इसका प्राकृतिक वर्णन एवं भावचित्रण दोनों ही सुन्दर हैं. धूर्ताख्यान भी इनकी अच्छी रचना है. हरिभद्र सूरि के योगबिन्दु एवं योगदृष्टिसमुच्चय भी दर्शनशास्त्र की अच्छी रचनाएँ मानी जाती हैं. महेश्वर सूरि भी राजस्थानी सन्त थे. इनकी प्राकृत भाषा की ज्ञानपञ्चमीकहा तथा अपभ्रंश की 'संयममंजरीकहा' प्रसिद्ध रचनाएं हैं. जैन दृष्टिकोण से लिखी गई, दोनों ही कृतियों में कितनी ही सुन्दर कथाएँ हैं. ज्ञानपंचमीकहा में जयसेन, नंद, भद्रा, वीर, कमल गुणानुराग, विमल, धरण, देवी और भविष्यदत्त की कथाएं हैं. कथाएं सुन्दर, रोचक एवं धाराप्रवाह में वर्णित हैं तथा एक बार प्रारम्भ करने के पश्चात् उसे छोड़ने को मन नहीं चाहता. अपभ्रश के प्रसिद्ध कवि हरिषेण भी चित्तौड़ के निवासी थे. इनके पिता का नाम गोवर्द्धन था. धक्कड़ उनकी जाति थी तथा श्री उजपुर से उनका निकास हुआ था. इन्होंने अपनी कृति 'धम्मपरिक्खा' संवत् १०४४ में अचलपुर में समाप्त की थी. धम्मपरिक्खा अपभ्रश की सुन्दर कृति है जिसकी ११ संधियों में १०० कथाओं का वर्णन किया गया है. यह कथा-कृति जैन समाज में बहुत प्रिय रही. राजस्थान में इसका विशेष प्रचार था. इसलिए यहाँ के कितने ही ग्रंथभण्डारों में इस कृति की पाण्डुलिपियां मिलती हैं. धम्मपरिक्खा के अतिरिक्त राजस्थान के ग्रंथ-संग्रहालयों में अपभ्रंश भाषा की १०० से भी अधिक रचनाएँ मिलती हैं. स्वयम्भू, पुष्पदन्त, वीर, नयनन्दि, सिंह, लक्ष्मण [लाखू] रइधू आदि कवियों की रचनाएं राजस्थान में विशेष रूप से प्रिय रही हैं. यहाँ के भट्टारकों एवं यतियों ने अपभ्रश कृतियों की प्रतिलिपियाँ करवा कर भण्डारों में स्थापित करने में विशेष रुचि ली और यह परम्परा १५ वीं शताब्दी से १७ वीं शताब्दी तक अधिक रही. अपभ्रश की इन कृतियों के लिये जयपुर, आमेर एवं नागौर के भण्डार विशेषत: उल्लेखनीय हैं. अपभ्रश साहित्य का अधिकांश भाग इन्हीं भण्डारों में संग्रहीत है.' संस्कृत साहित्य राजस्थान के अधिकांश संत संस्कृत के भी विद्वान् थे. संस्कृत साहित्य से उन्हें विशेष रुचि थी और इस भाषा में उन्होंने श्रावकों के लिये पुराण, काव्य, चरित्र, कथा, स्तोत्र एवं पूजा साहित्य का भी सृजन किया था. १७ वीं शताब्दी
१. अपभ्रंश ग्रन्थों के परिचय के लिये देखिये लेखक द्वारा संपादित 'प्रशस्तिसंग्रह'.
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