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मुनि श्री पुण्ययिजय : जैन श्रागमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७४३ ३. वास्तव में प्राकृत भाषाओं के प्राचीन ग्रन्थ ही इन भाषाओं के पृथक्करण के लिये अकाट्य साधन हैं और सचमुच ही उपर्युक्त दो साधनों की अपेक्षा यह साधन ही अतिउपयुक्त साधन है. इसका उपयोग डॉ० पिशल आदि विद्वानों ने असावधानी से किया भी है, तथापि मैं मानता हूँ कि वह अपर्याप्त है क्योंकि डॉ० पिशल आदि ने जिस विशाल साहित्य का उपयोग किया है वह प्रायः अर्वाचीन प्रतियों के आधार पर तैयार किया गया साहित्य था जिसमें भाषा के मौलिक स्वरूप आदि का काफी परिवर्तन हो गया है. इसी साहित्य की प्राचीन प्रतियों को देखते हैं तब भाषा और प्रयोगों का महान् वैलक्षण्य नजर आता है. खुद डॉ० पिशल महाशय ने भी इस विषय का उल्लेख किया है. दूसरी बात यह है कि – डॉ० पिशल आदि विद्वानों ने ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर जिनमें प्राकृत भाषाप्रवाहों के मौलिक अंश होने की अधिक संभावना है और जो प्राकृत भाषाओं के स्वरूपनिर्णय के लिये अनिवार्य साधन की भूमिकारूप हैं ऐसे प्राचीनतम जैन आगमों का जो प्राचीन प्राकृतव्याख्या साहित्य है उसका उपयोग बिलकुल किया ही नहीं है. ऐसा अति प्राचीन श्वेतांबरीय प्राकृत व्याख्यासाहित्य जैन आगमों की नियुक्ति भाष्य - महाभाष्य चूर्णियाँ हैं और इतर साहित्य में कुवलयमालाकहा, वसुदेवहिंडी, चउप्पन्न महापुरिसचरियं आदि हैं. तथा दिगंबरीय साहित्य में । धवल, जयधवल, महाधवल, तिलोयपण्णत्ती आदि महाशास्त्र हैं. यद्यपि दिगंबर आचार्यों के ग्रन्थ ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर श्वेतांबर जैन आगमादि ग्रन्थों की अपेक्षा कुछ अर्वाचीन भी हैं तथापि प्राकृत भाषाओं के निर्णय में सहायक जरूर हैं. मुझे तो प्रतीत होता है कि प्राकृत भाषाओं के विद्वानों को प्राकृत भाषाओं को व्यवस्थित करने के लिये डॉ० पिशल के प्राकृतव्याकरण की भूमिका के आधार पर पुनः प्रयत्न करना होगा.
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यहाँ पर जिस निर्मुक्ति-भाग्य-पूर्णिमापन्थ आदि श्वेतांबर-दिसंबर साहित्य का निर्देश किया है वह अतिविस्तृत प्रमाण में है और इसके प्रणेता स्थविर केवल धर्मतत्त्वों के ही ज्ञाता थे ऐसा नहीं किन्तु वे प्राकृत भाषाओं के भी उत्कृष्ट ज्ञाता थे. प्राचीन प्राकृत भाषाओं की इनके पास मौलिक विरासत भी थी.
जैन आगमों की मौलिक भाषा अर्धमागधी कही जाती है. उसके स्वरूप का पता लगाना आज शक्य नहीं है. इतना ही नहीं किन्तु वल्लभी में आगमों का जो अन्तिम व्यवस्थापन हुआ उस समय भाषा का स्वरूप क्या था, इसका पता लगाना भी आज कठिन है इसका कारण यह है कि आज हमारे सामने उस समय की या उसके निकट के समय की जैन आगमों की एक भी प्राचीन हस्तप्रति विद्यमान नहीं है. इस दशा में भी आज हमारे सामने आचाराङ्ग, सूत्रकृतांग, दशवेकालिक आदि आगमों की चूर्णियों और कुछ जैन आगमों के भाष्य - महाभाष्य ऐसे रह गये हैं जिनके आधार पर वलभीपुस्तक लेखन के युग की भाषा और उसके पहले के युग की भाषा के स्वरूप के निकट पहुँच सकते हैं. क्योंकि इन चूर्णियों में मूलसूत्रपाठ को चूर्णिकारों ने व्याख्या करने के लिये प्रायः अक्षरशः प्रतीकरूप से उद्धृत किया है, जो भाषा के विचार और निर्णय के लिये बहुत उपयोगी है. कुछ भाष्य महाभाष्य और चूर्णियाँ ऐसी भी आज विद्यमान हैं जो अपने प्राचीन रूप को धारण किये हुए हैं. वे भी भाषा के विचार और निर्णय के लिये उपयुक्त हैं. इसके अतिरिक्त प्राचीन चूर्णि आदि व्याख्याग्रन्थों में उद्धरणरूप से उद्धृत जैन आगम और सन्मति, विशेषणवती, संग्रहणी आदि प्रकरणों के पाठ भी भाषा के विचार के लिये साधन हो सकते हैं.
आचार्य श्री हेमचन्द्र ने प्राचीन प्राकृतव्याकरण एवं प्राचीन प्राकृत वाङ्गमय का अवलोकन करके और देशी धातुप्रयोगों का धात्वादेशों में संग्रह करके जो अतिविस्तृत सर्वोत्कृष्ट प्राकृत भाषाओं के व्याकरण की रचना की है वह अपने युग के प्राकृत भाषा के व्याकरण और साहित्यिक भाषाप्रवाह को लक्ष्य में रखकर ही की है. यद्यपि उसमें कहीं-कहीं जैन आगमादि साहित्य को लक्ष्य में रखकर कुछ प्रयोगों आदि की चर्चा की है तथापि वह बहुत ही अल्प प्रमाण में है. इस बात का निर्देश मैंने साराभाई नवाब अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित कल्पसूत्र की प्रस्तावना में [पृ० १४-१५] किया भी है. आचार्य श्रीहेमचन्द्र ने जैन आगम आदि की भाषा और प्रयोगों के विषय में विशेष कुछ नहीं किया है तो भी उन्होंने अपने व्याकरण में जैन आगमों के भाष्य आदि में आनेवाले कुछ व्यापक प्रयोगों का और युष्मद्-अस्मद् आदि शब्दों एवं धातुओं के रूपों का संग्रह जरूर कर लिया है. डॉ० पिशल ने कई रूप नहीं मिलने का अपने व्याकरण में निर्देश किया
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