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७३८ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
धर्मकथा साहित्य
जैनाचार्यों ने प्राकृत कथासाहित्य के विषय में भी अपनी लेखनी का उपयोग काफी किया है. जैनाचार्यों ने काव्यमय कथाएं लिखने का प्रयत्न विक्रम संवत् प्रारम्भ के पूर्व ही शुरू किया है. आचार्य पादलिप्त की तरंगवती, मलयवती, मगधसेना संघदासगण वाचक विरचित वसुदेवहिंडी, धूर्ताख्यान आदि कथाओं का उल्लेख विक्रम की पांचवीं छट्ठी सदी में रचे गए भाष्यों में आता है. धूर्ताख्यान तो निशीथचूर्णिकार ने अपनी चूर्णि में [गा० २६६ पत्र १०२ १०५] भाष्य गाथाओं के अनुसार संक्षेप में दिया भी है और आख्यान के अन्त में उन्होंने "सेसं धुत्तक्खाणगारगुसारेण णेयमिति" ऐसा उल्लेख भी किया है. इससे पता चलता है कि प्राचीनकाल में 'धूतख्यान' नामक व्यंसक कथाग्रन्थ था, जिसका आधार लेकर आचार्य श्रीहरिभद्र ने प्राकृत धुर्ताख्यान की रचना की है. प्राचीन भाष्य आदि में जिन कथा-ग्रन्थों का उल्लेख पाया जाता है उनमें से आज सिर्फ एक श्रीसंघदासगण का वसुदेवहिंडी ग्रन्थ ही प्राप्त है, जो भी खण्डित है. दाक्षिण्याङ्क आचार्य श्रीउद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला कथा की [र० सं० शाके ७०० ] प्रस्तावना में पादलिप्त शालवाहन, षट्पर्णक, गुणाढ्य विमलाङ्क, देवगुप्त, रविषेण, भवविरह हरिभद्र आदि के नामों के साथ उनकी जिन रचनाओं का निर्देश किया है उनमें से कुछ रचनाएं प्राप्त हैं, किन्तु पादलिप्त की तरंगवती, षट्पर्णक के सुभाषित आदि रचनाएं, गुणाढ्य की पिशाच भाषामयी बृहत्कथा, विमलाङ्क का हरिवंश, देवगुप्त का त्रिपुरुषचरित्र आदि कृतियाँ आज प्राप्त नहीं हैं. संघदास को वसुदेवहिंडी, धर्मसेन महत्तर का शौरसेनी भाषामय वसुदेव हिंडी द्वितीय खण्ड, विमलाङ्क का पउमचरिय, हरिभद्रसूरि की समराइच्चकहा, शीलाङ्क विमलमति का चउप्पन्न महापुरिसचरिय, भद्रेश्वर की कहावली आदि प्राचीन कथाएं आज प्राप्त हैं. ये सब रचनाएं विक्रम की प्रथम सहस्राब्दी में हुई हैं. इनके बाद में अर्थात् विक्रम की बारहवीं शताब्दी में चौवीस तीर्थंकरों के चरित्र आदि अनेक चरितों की रचना हुई है, जो अनुमानत: दो-तीन शताब्दियों में हुई है. वर्धमानसूरि-- आदिनाथचरित्र और मणोरमा कहा, सोमप्रभाचार्य - सुमतिनाथ चरित और कुमारपालप्रतिबोध, गुणचंद्रसूरि अपरनाम देवभद्रसूरि पार्श्वनाथचरित, महावीरचरिय और कहारयणकोस, लक्ष्मणगणि-सुपासनाहचरिय, बृहद्गच्छीय हरिभद्रसूरि - चन्द्रप्रभचरित्र और नेमिनाहचरिउ अपभ्रंश, देवसूरि - पद्मप्रभचरित, अजितदेवसूरि श्रेयांसचरित, देवचन्द्रसूरि - शान्तिनाथचरित्र और मूलशुद्धिप्रकरणटीका, नेमिचन्द्रसूरि - अनन्तनाथचरित्र और महावीरचरित्र, श्रीचन्द्रसूरि-मुनिसुव्रतस्वामिचरित और कुंथुनाथचरित्र, पद्मप्रभसूरि-मुनिसुव्रतचरित्र, मलधारी हेमचन्द्रसूरि--अरिष्टनेमिचरित्र ( भवभावनावृत्त्यन्तर्गत), रत्नप्रभसूरि-अरिष्टनेमिचरित, यशोदेवसूरि-चन्द्रप्रभचरित, चन्द्रप्रभोपाध्याय वासुपूज्य चरित्र, चन्द्रप्रभसूरि विजयचन्द्र के वलिचरित्र, शान्तिसूरि-पृथ्वीचन्द्रचरित्र, विजयसिंहसूरिभुवनसुन्दरी कहा, धनेश्वर- सुरसुन्दरीकहा आदि प्राकृत कथा चरितग्रन्थ प्रायः महाकाय ग्रन्थ हैं और विक्रम की ग्यारहवींबारहवीं शताब्दी में ही रचे गये हैं. इनके अतिरिक्त दूसरी भी दश श्रावक चरित, वर्द्धमानदेशना, शालिभद्रादि चरित, ऋषिदत्ताचरित, जिनदत्ताख्यान, कलावईचरिय, दवदंतीकहा, सुसढकहा, मणीवईचरिय, सणकुमारचरिय, तरंगवती संक्षेप, सीयाचरिय, सिरिवालकहा, कुम्मापुत्तचरिय, मौन एकादशीकहा, जम्बूसामीचरिय, कालिकाचार्यकथा, सिद्धसेनाचार्यादि प्रबंध आदि अनेक छोटी-मोटी प्राकृत रचनाएं प्राप्त होती हैं. ये स्वतन्त्र साधुचरित स्त्री-पुरुष के कथाचरित होने पर भी इनमें प्रसंग-प्रसंग पर अवान्तर कथाएं काफी प्रमाण में आती हैं. इन महाकाय कथा-चरितों की तरह संक्षिप्त कथाचरित के संग्रहरूप महाकाय कथाकोशों की रचना भी बहुत हुई है. वे रचनाएं भद्रेश्वरसूरि की कहावली, जिनेश्वरसूरि का कथाकोश, नेमिचन्द्र - आम्रदेवसूरि का आख्यानकमणिकोश, धर्मघोष का ऋषिमण्डलप्रकरण, भरतेश्वर बाहुबलि स्वाध्याय आदि हैं.
अपभ्रंश में श्वेताम्बर जैन संप्रदाय में महाकवि धनपाल का सत्यपुरमहावीरस्तोत्र, धाहिल का पउमसिरिचरिउ, जिनप्रभसूरि का वइरसामिचरिउ आदि छोटी-छोटी रचनाएं बहुत पाई जाती हैं, किन्तु बड़ी रचनाएं श्री सिद्धसेनसूरि अपरनाम साधारण कविकृत विलासवई कहा [०३६२० रचना सं० ११२३] और हरिभद्रसूरि का नेमिनाहचरिउ [ग्रंथाग्र ८०३२ रचना सं० १२१६] ये दो ही देखने में आती हैं. आचार्य श्री हेमचन्द्र ने सिद्धहेमचन्द्र व्याकरण - अष्ट
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