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________________ wwwwwwwwww मुनि श्रीपुण्यविजय : जैन श्रागमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७३५ नियुक्तियाँ- स्थविर आर्य भद्रबाहु स्वामी ने दस आगमों पर नियुक्तियाँ रची हैं, जिनके नाम इन्होंने आवश्यकनियुक्ति में इस प्रकार लिखे हैं आवस्सयस्स १ दस कालियस्स २ तह उत्तरज्झ ३ मायारे ४ । सूयगडे णिज्जुत्ति ५ वोच्छामि तहा दसाणं च ६ ।। कप्पस्स य णिज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमनिउणस्स ८ । सूरियपण्णत्तीए ६ वोच्छं इसिभासियाणं च १० ॥ इन गाथाओं में सूचित किया है तदनुसार इन्होंने दस आगमों की नियुक्तियाँ रची थीं. आगमों की अस्तव्यस्त दशा, अनुयोग की पृथक्ता आदि कारणों से इन नियुक्तियों का मूल स्वरूप कायम न रहकर आज इनमें काफी परिवर्तन और हानि-वृद्धि हो चुके हैं. इन परिवर्तित एवं परिवद्धित नियुक्तिओं का मौलिक परिमाण क्या था ? यह समझना आज कठिन है. खास करके जिन पर भाष्य-महाभाष्य रचे गये उनका मिश्रण तो ऐसा हो गया है कि-स्वयं आचार्य श्री मलयगिरि को बृहत्कल्प की वृत्ति (पत्र १) में यह कहना पड़ा कि- 'सूत्रस्पशिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रंथो जातः' और उन्होंने अपनी वृत्ति में नियुक्ति-भाष्य को कहीं भी पृथक् करने का प्रयत्न नहीं किया है. सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषितसूत्र की नियुक्तियाँ उपलब्ध नहीं हैं. उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशा इन आगमों की नियुक्तियों का परिमाण स्पष्टरूप से मालुम हो जाता है आवश्यक, दशकालिक आदि की नियुक्तियों का परिमाण भाष्यगाथाओं का मिश्रण हो जाने से निश्चित करना कठिन जरूर है, तथापि परिश्रम करने से इसका निश्चय हो सकता है किन्तु कल्प व व्यवहारसूत्र की नियुक्तियों का परिमाण किसी भी प्रकार निश्चित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि-चूणि-विशेष-चूर्णिकारों ने कहीं-कहीं 'पुरातनगाथा, निर्यक्तिगाथा' इत्यादि लिखा है, जिससे नियुक्तिगाथाओं का कुछ ख्याल आ सकता है तो भी संपूर्णतया नियुक्तिगाथाओं का विवेक या पृथक्करण करना मुश्किल ही है. ऊपर जिन नियुक्तिओं का उल्लेख किया है इनके अतिरिक्त ओघनियुक्ति, पिडनियुक्ति और संसक्तनियुक्ति ये तीन नियुक्तियाँ और मिलती हैं. इनमें से ओघनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति में से और पिंडनियुक्ति दशकालिक नियुक्ति में से अलग किये गये अंश हैं. संसक्तनियुक्ति बहुत बाद की एवं विसंगत रचना है. स्थविर आर्य भद्रबाहुविरचित नियुक्तियों के अलावा भाष्य और चूणियों में गोविंदनिज्जुत्ति का भी उल्लेख आता है, जो स्थविर आर्य गोविंद की रची हुई थी. आज इस नियुक्ति का पता नहीं है. यह नष्ट हो गई या किसी नियुक्ति में समाविष्ट हो गई ? यह कहा नहीं जा सकता. निशीथचूणि में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है.---'तेण एगिदियजीवसाहणं गोविन्दनिज्जुत्ती कया" इनके अलावा और किसी नियुक्तिकार का निर्देश नहीं मिलता है. नियुक्तियों की रचना मूलसूत्रों के अंशों के व्याख्यान रूप होती है. संग्रहणियां--संग्रहणियों की रचना पंचकल्प महाभाष्य के उल्लेखानुसार स्थविर आर्य कालक की है. पाक्षिकसूत्र में भी "ससुत्ते सअत्थे सगंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए" इस सूत्रांश में संग्रहणी का उल्लेख है. इससे भी प्रतीत होता है कि संग्रहणियों की रचना काफी प्राचीन है. आज स्पष्टरूप से पता नहीं चलता है कि--स्थविर आर्य कालक ने कौन से आगमों की संग्रहणियों की रचना की थी? और उनका परिमाण क्या था ? तो भी अनुमान होता है कि भगवतीसूत्र, जीवाभिगमोपांग, प्रज्ञापनासूत्र, श्रमणप्रतिक्रमणसूत्र आदि में जो संग्रणियाँ पाई जाती हैं वे ही ये हों. इससे अधिक कहना कठिन है. भाष्य-महाभाष्य---जैन सूत्रों के भाष्य-महाभाष्यकार के रूप में दो क्षमाश्रमणों के नाम पाये जाते हैं-१ संघदास गणि क्षमाश्रमण और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण. जैन आगमों के महाकाय भाष्य-महाभाष्य निम्नोक्त आठ प्राप्य हैं--१ विशेषावश्यक महाभाष्य २ कल्पलघुभाष्य ३ कल्पवृहद्भाष्य ४ पंचकल्प ४ व्यवहार भाष्य ६ निशीथभाष्य ७ जीतकल्पभाष्य ARVA MAHARASHTRANSALLAHATARNIMULATHALINICALIMALAY amy FASTTIN INDIA ITAL . pan Jain EducaSa Jorg DE
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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