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मुनि श्रीपुण्यविजय : जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७२६
पद का कई जगह प्रयोग किया है. कहीं-कहीं इनकी कृतियों में केवल 'विरह' पद का प्रयोग होने के कारण इन्हें विरहाङ्क भी कहते हैं. ये अपने को अनेक ग्रन्थों की अन्तिम पुष्पिका में 'धर्मतो याकिनीमहत्तारासूनु' के रूप में भी लिखते हैं. ये जैन आगमों के पारंगत आचार्य थे एवं दर्शनशास्त्रों के प्रखर ज्ञाता थे. इन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना की ऐसा प्रघोष चला आता है. इन्होंने अपनी कृतियों में अपनी जिन-जिन रचनाओं के नाम निर्दिष्ट किये हैं उनमें से भी बहुत से ग्रन्थ आज अप्राप्य हैं. फिर भी प्राचीन ज्ञानभंडारों को टटोलने से इनकी नई रचनाएँ प्राप्त होती हैं. कुछ वर्ष पहले ही खंभात के प्राचीन ताडपत्रीय भंडार में से इनका रचा हुआ योगशतक नामक ग्रन्थ प्राप्त हुआ था. अभी हाल ही में कच्छ-मांडवी के खरतरगच्छीय प्राचीन ज्ञानभंडार में से इसी ग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका की वि० सं० ११६४ में लिखी हुई ताडपत्रीय प्रति भी प्राप्त हुई है. इसी प्रकार आज अपने पास जो लाखों की तादाद में हस्तप्रतियां विद्यमान हैं जिनकी व्यवस्थित सूचियां अभी तक नहीं बनी हैं, उन्हें टटोला जाय तो बहुत संभव है कि अपनी कल्पना में भी न हों ऐसी प्राचीन-प्राचीनतम अनेक कृतियां प्राप्त हों. आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वविचार और आचार के निरूपण में समन्वयशैली को विशिष्ट रूप से आदर दिया है, अतः इनकी रचनाओं में प्रचुर गांभीर्य आया है. इनके विषय में विद्वानों ने अनेक दृष्टियों से काफी लिखा है, तथापि प्रसंगवश यहां कुछ कहना अनुचित न होगा. इन्होंने आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, दशवकालिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम और पिण्डनियुक्ति- इन जैन आगमों पर अप्रतिम एवं मौलिक वृत्तियों का निर्माण किया है. आवश्यकसूत्र पर तो इन्होंने दो वृत्तियाँ लिखी थीं. इनमें से शिष्यहिता नामक २२००० श्लोक परिमित लवुवृत्ति ही प्राप्त है. किन्तु दुर्भाग्य है कि दार्शनिक चिन्तनों के महासागर जैसी बृहद्वृत्ति अनुपलब्ध है. इस वृत्ति का इन्होंने अपनी शिष्यहिता-लघुवृत्ति के प्रारंभ में “यद्यपि मया तथान्यैः कृताऽस्य विवृतिस्तथापि संक्षेपात्" इस प्रकार निर्देश किया है. इसी बृहद्वृत्ति को लक्ष्य करके इन्होंने नन्दीसूत्र की वृत्ति में भी "साङ्केतिकशब्दार्थसम्बन्धवादिमतमप्यावश्यके विचारयिष्यामः" इस प्रकार का उल्लेख किया है. इस उल्लेख से पता लगता है कि इस बृहद्वत्ति में इन्होंने कितने दार्शनिक वादों की गहरी समीक्षा की होगी. इस बृहद्वृत्ति का प्रमाण मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने अपने आवश्यकहारिभद्री वृत्ति के टिप्पन में (पत्र २-१) "यद्यपि मया वृत्तिः कृता इत्येवंवादिनि वृत्तिकारे चतुरशीतिसहस्रप्रमाणाऽनेनैवावश्यकवृत्तिरपरा कृताऽऽसीदिति प्रवादः" इस उल्लेख द्वारा ८४००० श्लोक बतलाया है. आचार्य हरिभद्र अनेक विषयों के महान् ज्ञाता थे. इनकी ग्रन्थरचनाओं का प्रवाह देखने से अनुमान होता है कि ये पूर्वावस्था में सांख्यमतानुयायी रहे होंगे. इन्होने उस युग के भारतीय दर्शनशास्त्रों का गहराई से अध्ययन करने में कोई कमी नहीं रखी थी. यही कारण है कि इन्होंने अतिगंभीरतापूर्वक समस्त दार्शनिक तत्त्वों का जैनदर्शन के साथ समन्वय करने का प्रयत्न किया है. इन्होंने धर्मसंग्रहणी, पंचवस्तुक, उपदेशपद, विंशतिविशिंका, पंचाशक, योगशतक, श्रावकधर्मविधितंत्र, दिनशुद्धि आदि शास्त्रों का तथा समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान आदि कथाओं का प्राकृत भाषा में निर्माण कर प्राकृतभाषा को समृद्ध किया है. इन ग्रन्थों में दार्शनिक, शास्त्रीय, ज्योतिष, योग, चरित्र आदि अनेक विषयों का संग्रह है. इस प्रकार प्राकृतभाषा को इनकी बड़ी देन है. इसी प्रकार संस्कृत में भी इन्होंने अनेकान्तवाद, अनेकान्तजयपताका, न्यायप्रवेश, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय, अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, धर्मबिन्दु, योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, लोकतत्त्वनिर्णय आदि ग्रन्थ बनाये हैं. इस प्रकार संस्कृतभाषा को भी इनकी बड़ी देन है. (४०) कोट्याचार्य-(वि० ६ वीं शताब्दी) इन्होंने विशेषावश्यकमहाभाष्य पर टीका की है. इसके अलावा इनकी अन्य कोई रचना नहीं मिली है. (४१) वीराचार्ययुगल--(१ वि० ६-१० शताब्दी और २ वि० १३ श०) आचार्य हरिभद्र उपर्युक्त पिण्डनियुवितवृत्ति को पूर्ण किये विना ही दिवंगत हो गये थे. इसकी पूर्ति वीराचार्य ने की थी. वीराचार्य दो हुए हैं. एक आचार्य हरिभद्र की अपूर्ण वृत्ति को पूर्ण करनेवाले और दूसरे पिण्डनियुक्ति की स्वतन्त्र वृत्ति बनाने वाले. इन दूसरे वीराचार्य ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में इस प्रकार लिखा है :
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