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परमानन्द जैन : मध्यभारत का जैन पुरातत्व : ७०९ (वि० सं० ११६५) का है. ये मूर्तियाँ कायोत्सर्ग तथा पद्मासन दोनों प्रकार की हैं. उत्तर की वेदी में सात फण सहित भगवान् श्रीपार्श्वनाथ की सुन्दर पद्मासन मूर्ति है. दक्षिण की भींत पर भी पांच वेदियाँ हैं जिनमें से दो के स्थान रिक्त हैं. जान पड़ता है कि उनकी मूर्तियाँ विनष्ट कर दी गई हैं. उत्तर की वेदी में दो नग्न कायोत्सर्ग मूर्तियाँ अभी भी मौजूद हैं. और मध्य में ६ फुट ८ इंच लम्बा आसन एक जैन मूर्ति का है. दक्षिणी वेदी पर भी दो पपासन नग्न मूर्तियाँ विराजमान हैं. दुर्ग की उर्वाही द्वार की मूर्तियों में भगवान् आदिनाथ की मूर्ति सबसे विशाल है. उसके पैरों की लम्बाई नौ फुट है और इस तरह पैरों से तीन चार गुणी ऊंची है. मूर्ति की कुल ऊंचाई ५७ फीट से कम नहीं है. श्वेताम्बरीय विद्वान् मुनि शीलविजय और सौभाग्यविजय ने अपनी-अपनी तीर्थमाला में इस मूर्ति का प्रमाण बावन गज बतलाया है.' जो किसी तरह भी सम्भव नहीं है. और बाबर ने अपने आत्मचरित में इस मूर्ति को करीब ४० फीट ऊंचा बतलाया है, वह भी ठीक नहीं है. कुछ खण्डित मूर्तियों की बाद में सरकार की ओर से मरम्मत करा दी गई है, फिर भी उनमें की अधिकांश मूर्तियाँ अखण्डित मौजूद हैं. बाबा बावड़ी और जैन मूर्तियाँ :-ग्वालियर से लश्कर जाते समय बीच में एक मील के फासले पर 'बाबा वावड़ी' के नाम से प्रसिद्ध एक स्थान है. सड़क से करीब डेढ फलाँग चलने और कुछ ऊंचाई चढ़ने पर किले के नीचे पहाड़ की विशाल चट्टानों को काट कर बहुत सी पद्मासन तथा कायोत्सर्ग मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं. ये मूर्तियाँ स्थापत्य कला की दृष्टि से अनमोल हैं. इतनी बड़ी पद्मासन मूर्तियाँ मेरे देखने में अन्यत्र नहीं आई. बावड़ी के बगल में दाहिनी ओर एक विशाल खड्गासन मूर्ति है. उसके नीचे एक विशाल शिलालेख भी लगा हुआ है, जिससे मालूम होता है कि इस मूर्ति की प्रतिष्ठा वि० संवत् १५२५ में तोमर वंशीय राजा डूंगरसिंह के पुत्र कीर्तिसिंह के राज्यकाल में हुई है. खेद है कि इन सभी मूर्तियों के मुख प्रायः खंडित हैं. यह मुस्लिमयुग के धार्मिक विद्वेष का परिणाम जान पड़ता है. इन मूर्तियों की केवल मुखाकृति को ही नहीं बिगाड़ा गया किन्तु किसी किसी मूर्ति के हाथ-पैर भी खण्डित कर दिये गये हैं. इतना ही नहीं किन्तु विद्वेषियों ने कितनी ही मूर्तियों को गारा-मिट्टी से भी चिनवा दिया था और सामने की विशाल मूर्ति को गारा मिट्टी से छाप कर उसे एक कब्र का रूप भी दे दिया था. परन्तु सितम्बर सन् १८४७ के दंगे के समय उनसे उक्त स्थान की प्राप्ति हुई है. संग्रहालय :-ग्वालियर के किले में एक अच्छा संग्रहालय है जिसमें हिन्दू, जैन और बौद्धों के प्राचीन अवशेषों, मूर्तियों, शिलालेखों और सिक्कों आदि का संग्रह किया गया है. इसमें जैनियों की गुप्तकालीन खड्गासन मूर्ति भी रक्खी हुई है, जो कलात्मक है और दर्शक को अपनी ओर आकृष्ट करती है. इसी में सं० १३१८ का भीमपुर का महत्त्वपूर्ण शिलालेख भी है.
ग्वालियर के आसपास उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री दूब कुण्ड के शिलालेख :-दूब कुण्ड का दूसरा नाम 'चडोभ' है. यह स्थान किसी समय जैन संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान था. यहाँ कच्छपघट (कछवाहा) वंश के शासकों के समय में भी जैन मंदिर मौजूद थे, और नूतन मन्दिरों का भी निर्माण हुआ था, साथ ही शिलालेख में उल्लिखित लाड-बागड गण के देवसेन, कुलभूषण, दुर्लभसेन, अंवरसेन और शांतिषेण इन पांच दिगम्बर जैनाचार्यों का समुल्लेख पाया जाता है जो उक्त प्रशस्ति के लेखक एवं शंतिषेण के शिष्य विजयकीति के पूर्ववर्ती हैं. यदि इन पांचों आचार्यों का समय १२५ वर्ष मान लिया जाय, जो अधिक नहीं है, तो उसे ११४५ में से घटाने पर देवसेन का समय १०२० के लगभग आ जाता है. ये देवसेन अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् थे, और लाड-बागडगण के उन्नत रोहणाद्रि थे, विशुद्ध रत्नत्रय के धारक थे और समस्त आचार्य इन की आज्ञा को नत
१. बावन गज प्रतिमा दीसती, गढ ग्बालेरि सदा सोभती ।।३।। ---शील विजय तीर्थमाला पृ० १११
गढ ग्वालेर बावन गज प्रतिमा बंदू ऋषभ रंगरोली जी ।। -सौभाग्यविजय तीर्थमाला १४-२-१० १८.
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