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७०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
थे, जो चंदेलवंश के यशस्वी नक्षत्र थे. इस नगर के पास जो विशाल सरोवर बना हुआ है वह वर्तमान 'मदनसागर नाम से प्रसिद्ध है. इसके किनारे अनेक प्रतिष्ठा-महोत्सव सम्पन्न हुए हैं. मदनवर्मा का शासन विक्रम की ११ वीं शताब्दी में विद्यमान था. उसके बाद ही किसी समय इसका नाम 'अहार' प्रसिद्ध हुआ होगा. यहाँ के उपलब्ध मूर्तिलेखों में खंडेलवाल, जैसवाल, मेडवाल, लमेचु, पौरपाट (परवार) गृहपति, गोलापूर्व, गोलाराड, अवधपुरिया और गर्गराट् आदि अनेक उपजातियों के उल्लेख मिलते हैं, जो उनकी धार्मिक रुचि के द्योतक हैं. उनसे यह भी स्पष्ट जाना जाता है कि उस काल में यह खूब सम्पन्न रहा होगा. क्योंकि वहाँ विविध उपजातियों के जैन जन रहते थे और गृहस्थोचित षट्कर्मों का पालन करते थे. ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि यह स्थान ७०० वर्षों तक जैन संस्कृति के आचार-विचारों से परिपूर्ण रहा है, क्योंकि यहाँ वि० सं० ११२३ और ११६६ से लेकर वि० सं० १९६८ तक की प्राचीन मूर्तियाँ और लेख उपलब्ध होते हैं. ये सब लेख ऐतिहासिक तथ्यों से परिपूर्ण हैं और अतीत के गौरव की अपूर्व झांकी प्रस्तुत करते हैं. यदि वहाँ खुदाई कराई जाय तो संभवतः और भी पुरातन जैन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हो सकते हैं. इन लेखों में सबसे अधिक लेख जैसवालों और गोलापूर्वो के पाये जाते हैं. उनसे उन जातियोंके धर्म-प्रेम की झलक मिलती है. संवत् १२१३ के एक लेख में भट्टारक माणिक्यदेव तथा गुण्यदेव का नाम उत्कीर्ण है. और सं० १२१६ के लेख में श्रीसागरसेन सैद्धांतिक, आयिका जयश्री और चेली रतनश्री का उल्लेख है. सं० १२१६ के एक दूसरे लेख में कुटकान्वयी पंडित लक्ष्मणदेव शिष्य आर्य देव आर्यिका लक्ष्मश्री चेली चारित्रश्री और भ्राता लिम्बदेव का नाम अंकित है. सं० १२१६ के एक तीसरे लेख में कुटकान्वय पंडित मंगलदेव, और उनके शिष्य भ० पद्मदेव का नामांकन है. सं० १५४८ के लेख में भट्टारक 'जिनचन्द' और शाह जीवराज पापडीवाल का नामोल्लेख है. १५०२ के एक लेख में भ० गुणकीति के पट्टधर मलयकीर्ति के द्वारा प्रतिष्ठा कराने का भी उल्लेख पाया जाता है.' इसी तरह अन्य अनेक लेखों में जो विद्वानों भट्टारकों या श्रावक श्राविकाओं के नाम का अंकन मिलता है, वह इतिहास की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण है.
अहार क्षेत्र में भगवान शांतिनाथ की प्रतिष्ठा कराने वाला गृहपति वंश जैनधर्म का अनुयायी था. जैनधर्म की परम्परा उसके वंश में पहले से चली आ रही थी, क्योंकि इस वंश के देवपाल ने बाणपुर के सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराया था. ऐसा शांतिनाथ की मूर्ति के सं० १२३७ के लेख के प्रथम पद्य से प्रकट हैं.२ बाणपुर का उक्त जिनालय कब बना यह निश्चित नहीं है किन्तु सं० १२३७ के लेख में जो उल्लेख है उससे पहले बना है. लेख में प्रयुक्त देवपाल, रत्नपाल, रल्हण गल्हण जाहड और उदयचन्द का नाम आता है. गल्हण ने शान्तिनाथ का चैत्यालय बनवाया था और दूसरा चैत्यालय मदनसागरपुर में निर्माण कराया था और इनके पुत्र जाहड और उदयचन्द्र ने इस मूर्ति का निर्माण कराया है. इससे इस कुटुम्ब की धार्मिक परिणति का कितना ही अभास मिल जाता है और यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस कुटुम्ब में मंदिर-निर्माण आदि का कार्य परम्परागत था. प्रस्तुत मदनसागरपुर का नाम आहार क्यों और कैसे पड़ा, यह विचारणीय है. अहार के उक्त मूर्ति लेखों में पाणा साह का कोई उल्लेख नहीं है. फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि मन्दिरादि का निर्माण उनके द्वारा हुआ है. और मुनि को आहार देने से इसका नाम 'अहार' हुआ है. इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक प्रमाणों का अन्वेषण करना जरूरी है जिससे तथ्य प्रकाश में आ सकें. इस तरह मदनेश सागरपुर और अहार जैन संस्कृति के केन्द्र रहे हैं. बानपुर आहार क्षेत्र से ३-४ मील की दूरी पर अवस्थित है. यह भी एक प्राचीन स्थान है. जतारा ग्राम भी १२-१३वीं सदी के गौरवसे उद्दीपित है, वहाँ भी जैनधर्म की विशेष प्रतिष्ठा रही है.
१. देखो अनेकान्त वर्ष ६ किरण १० तथा वर्ष १० किरण १, २, ३, आदि में प्रकाशित अहार के लेख. २. गृहपतिवंशसरोरुह-सहस्ररश्मिः सहस्रकूट यः ।
बाणपुरे व्याधितासात श्रीमानिह देवपाल इति ।।
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