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प्रो० परमानन्द चोयल : राजस्थानी चित्रकला : ६६७
शेषमल का सुंदर चित्र इसी कलाकार की रचना है. सावंतसिंह [कवि नागरीदास ने काव्यरचना १७२३ शती से ही आरम्भ कर दी थी. उसकी राधासौंदर्य की पराकाष्ठा थी. उसका रूप अलौकिक था फिर भी अत्यन्त लौकिक. किशनगढ़ कलम के चितेरों के लिये यह रूप आदर्श बन गया और इसी समय से यहां की कला में एक क्रान्ति-सी उत्पन्न हो गई. १७३५ से १७५७ शती तक किशनगढ़ कला का स्वर्णयुग था जब कि निहालचन्द ब उससे प्रभावित कलाकार कवि नागरीदास के काव्य को साकार कर रहे थे. राजसिंह की कलाभिरुचि अन्य राजाओं जैसी ही थी- शबीह लगवाना, दरबार सवारी अथवा शिकार के दृश्य बनवाना इत्यादि. इसमें भी सन्देह नहीं कि राधाकृष्ण की लीलाओं के चित्र राजस्थान में उस समय तक बनने लगे थे, किन्तु जो भावात्मकता, कल्पना की सूक्ष्मता, लाक्षणिकता, मादकता, मनोवैज्ञानिक निरीक्षण, दृष्टि का पैनापन, व मानवरूप की पराकाष्ठा सांवतसिंह के समय में आई उसने सारे राजस्थान की कला में ही जागृति की लहर दौड़ा दी. उससे १८वीं शती में वह चित्र बने जो विश्व कला की निधि बन गए. कवि नागरीदास की राधा, निहालचन्द द्वारा चित्रित बणीठणी संसार प्रसिद्ध [चित्रकार लिनार्डो डीविंची] मोना लिसो के समक्ष प्रादरपूर्वक रखी जा सकती है. १७वीं शती में चित्रकला के कई केन्द्र हो गये. मेबाड़, बूंदी. अजमेर बीकानेर इत्यादि अनेक स्थानों में श्रेष्ठ चित्र बनने लगे, आमेर व जोधपुर में भी इस समय चित्रों का इतिहास मिलता है परन्तु वह बहुत ही उथला है. यहां के चित्र काफी आरम्भिक इस समय दीख पड़ते हैं. १७वीं अती के अन्त में बीकानेर में मुगल शैली से अत्यन्त प्रभावित एक स्थानीय शैली पनपती रही. इस पर दक्षिणी शैली का भी प्रभाव पड़ा. यहां की लम्बी आकृतियों व विशेष प्रकार के पेड़ पौधों व फूल पत्ती इत्यादि के चित्रण से यह बात स्पष्ट हो जाती है. १८वीं शती में चित्रों की बाढ़-सी आ गई. एक-एक राज्य यहां तक कि छोटे से छोटे ठिकाने में भी चित्र शालाएँ खुलने देगी. हजारों की संख्या में चित्र बनने लगे. जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर इत्यादि इसके मुख्य केन्द्र बन गए. जयपुर के रासमंडल के चित्र जो पोथीखाने में संग्रहित हैं, अत्यन्त गतिपूर्ण हैं. उष्ण रंगों व ओज की अब चित्रों में कमी दीखने लगो. ढेरों चित्र बने जिनमें से अच्छे चित्र उंगलियों पर गिने जा सकते हैं. १६वीं शती में चित्रों की बाढ़ें उन्माद सी बढ़ गई. १८५० शती के बाद के चित्रों में कलात्मकता के स्थान पर केवल कारीगरी दिखाई देने लगी व धीरे-धीरे इसमें भी शिथिलता आने लगी. उनकी कीमत अब बाजार के मोल तोल सी ही रह गई. १६वीं शती के उत्तरार्ध व २०वीं शती के आरम्भ में प्राचीन चित्रों की अनुकृति करने वाले घटिया किस्म के यूरोपीय चित्रों व फोटोग्राफी से प्रेरित चितेरे यत्र तत्र बाजारों में बैठे दिखाई देने लगे. तभी बंगाल में श्री अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने कला का पुननिर्माण कर समस्त भारत में जागृति की एक नई लहर दौड़ा दी. राजस्थान ने भी उसमें अपना योगदान दिया. श्री शैलेन्द्र नाथ डे की प्रेरणा से की रामगोपाल विजयवर्गीय ने राजस्थान की मृतप्राय कला में फिर से चेतना पैदा की. इस समय राजस्थान में चित्रकला के तीन रूप प्रचलित हैं. एक वह जिसके प्रवर्तक परम्परागत कला के पुननिर्माण में संलग्न हैं. रामगोपाल विजयवर्गीय, गोवर्धन जोशी, रामनिवास वर्मा, देवकीनन्दन शर्मा आदि इस शैली के उल्लेखनीय कलाकार हैं. दूसरे यथार्थ शैली में परीक्षण करने वाले कलाकार हैं. श्रीभूरसिंह शेखावत व श्री भवानीचरण गुई इस श्रेणी के स्मरणीय कलाकार हैं. कला का तीसरा रूप वह है जिसमें आधुनिक कला की विभिन्न प्रवृत्तयों पर प्रयोगात्मक चित्र बनाने वाले कलाकार आते हैं. इन पंक्तियों का लेखक, श्री आर. वी. सखालकार, रणजीत सिंह व ज्योतिर्मान स्वरूप इत्यादि इसके गिने माने कलाकार हैं. पुनर्जागरण का अभी राजस्थान में शैशवकाल ही है. १८वीं व १६वीं शती की राजस्थानी कला ने विश्वकला में जो स्थान पाया उस पर आसीन होने के लिये राजस्थान को अभी कल की प्रतीक्षा है.
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