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मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : ४३
प्रभाव, उन जैसे संयमशील और प्रकाण्ड पण्डित और तत्त्वज्ञानी के लिए ही संभव था. आपका लाडनू-चार्तुमास धर्मप्रभावना की दृष्टि से बड़ा सफल रहा. अनेक भाइयों और बाइयों को दया-दान का उपदेश देकर जिनाज्ञामूलक सन्मार्ग प्रदर्शित किया. आपके पश्चात् ही पूज्य श्रीजवाहरलालजी म० को इस क्षेत्र में सफलता का गौरव प्राप्त हुआ था. उस युग के असाधारण प्रतिभाशाली इन विद्वान् संतशिरोमणि ने चैत्र कृष्णा त्रयोदशी के दिन समाधिमरणपूर्वक ब्यावर नगर में देहोत्सर्ग किया.
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स्वामी श्रीजोरावरमलजी म. आप स्वामी श्रीफकीरचन्द्र जी म० के सबसे छोटे प्रतिभावान शिष्य थे. आपका जन्म सिहु (जोधपुर) की पवित्र धरती पर विक्रम संवत् १६३६ की वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन माता मगना बाई की रत्नकुक्षि से हुआ था. आप श्रीरिद्धकरणजी के आत्मज थे. सं० १६४४ की अक्षयतृतीया के शुभ मुहूर्त में स्वामी श्रीफकीरचन्द्र जी के द्वारा मुनिदीक्षा ग्रहण की थी. आपकी यह दीक्षा जयगच्छीय परंपरा के गौरवशाली नगर नागौर में हुई. दीक्षाग्रहणोपरांत संस्कृत व्याकरण, आगम, टीका चूणि, छन्दःशास्त्र, ज्योतिष और न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया. अध्ययन के साथ-साथ सुक्ष्म चितन करना आपके जीवन की एक उल्लेखनीय विशेषता थी. प्रबुद्ध एवं गभीर चितन का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि सम्प्रदाय में रहते हुए भी आपके विचारों में विराटता आगई और आप समन्वयवादी हो गये. आपको लगा कि सब धर्मों का लक्ष्य एक ही है. आपके जीवन में समन्वयवृत्ति के महत्त्वपूर्ण कार्यों की एक लम्बी सची जुडी हई है. सामाजिक क्षेत्र में मानव के सर्वांगीण विकास पर सोचना और उसे कार्यरूप में परिणत करना ही अन्त में आपने अपने लोकहित का मूलाधार बना लिया था। आपने कचेरा डेह नागौर आदि क्षेत्रों में हरिजनों के सम्मान का प्रभावशाली आन्दोलन प्रारम्भ किया था. सं० १६६५ का प्रसंग उल्लेख्य है. साधारणतया सर्वत्र ही हरिजनों को जूठन देने की परंपरा है. स्वामीजी को यह व्यवहार मानवजाति का घोर अपमान प्रतीत हुआ. उन्होंने कुचेरा, नागौर डेह आदि क्षेत्रों में हरिजनों के सम्मान का प्रभावशाली आन्दोलन प्रारम्भ किया. सर्वप्रथम कुचेरा में अनुदिन के प्रवचनों में इसका विरोध किया. निरन्तर के प्रवचनों के परिणामस्वरूप कुचेरा के जैन बन्धुओं ने हरिजनों को झूठा भोजन न देने की प्रतिज्ञा की. साथ ही उन्हें शुद्ध भोजन अमक परिमाण में देने का भी निश्चय किया. इसके बाद में जहाँ कहीं भी आप पधारे सर्वत्र इस बुराई के उन्मूलन के लिये प्रयत्नशील रहे. मुनिश्री द्वारा किये गये अन्त्यजोद्धार के कार्य की उलटी प्रतिक्रिया हुई. हरिजन-बन्धु मुनिश्री के पास आये और बोले-'महाराज, आपने यह क्या किया? पहले हमें अधिक मात्रा में भोजन प्राप्त होता था और अब सीमित ही मिलता है. आपका यह सुधार हमारे किस काम आया ?' स्वामीजी म. ने हरिजन-बन्धुओं की बात सुनी और विचारों में गहरे उतर गए. 'मनुष्य कितना हीन भावों में डब जाता है. उसे अपने मानवीय महत्त्व का भी भान नहीं रहता है. सच है, दासता मनुष्य के शरीर पर ही नहीं, मन, वाणी और आत्मा पर भी छा जाती है. जब और जिन परिस्थितियों में इस प्रथा का प्रारम्भ हुआ होगा उस समय अवश्य इन लोगों के मन में यह भा होगा कि हमें उच्छिष्ट भोजन दिया जाता है. धीरे-धीरे वे विचार मर गये. दासता और दीनता इनके दिमाग पर आज किस कदर सवार हो गई है कि शुद्ध भोजन मिल रहा है तो भी उच्छिष्ट भोजन के बिना इन्हें सन्तोष नहीं मिल रहा है. दैन्य कितना बड़ा पाप है. वह मानव को अपना मूल्य और महत्त्व भी नहीं
आँकने देता है. आज उन्हीं के हित की बात में उन्हें हानि दिखाई दे रही है...' मुनिश्री ने आगत हरिजन-बन्धुओं को समझाया--'मनुष्य-मनुष्य सब समान हैं. वर्ण विभाजन का उद्देश्य समाज की सुव्यवस्था था. सुव्यवस्था करने में जिसके हिस्से में जो कार्य आता है, उसे वह कार्य करना होता है. आप लोग सेवा