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अनूपचन्द १८ वीं शताब्दी के क्रांतिकारी साहित्यकार : महापंडित टोडरमलजी : ६७५ ६० वर्ष) भी पा जाते तो न जाने कितने महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना और कर जाते और उस समय जैन साहित्य का इतिहास एक दूसरी ही कलम से लिखा जाता. मोक्षमार्ग प्रकाशक उनकी स्वतंत्र रचना है. यह एक सिद्धांतग्रंथ है. इसमें मोक्ष की प्राप्ति का यथार्थ उपाय बतलाया गया है. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की अधूरी हिन्दी टीका को इनकी मृत्यु के पश्चात् तत्कालीन प्रसिद्ध साहित्यकार पं० दौलतराम कासलीवाल ने पूर्ण किया. मूल ग्रंथ आचार्य अमृतचन्द्र का है जो संस्कृतभाषा में निबद्ध है और जिसमें चारित्रविषयक अहिंसादि पाँच व्रत, सप्त शील एवं सल्लेखना आदि का सुन्दर वर्णन किया गया है. ग्रंथ में हिंसा अहिंसा का सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन हुआ है. प्रारंभ में आत्मा ही को पुरुष मान कर उस के द्वारा शुद्ध चैतन्य की प्राप्ति को ही कार्यसिद्धि बतलाया है. इसी तरह गोम्मटसार भी उच्चस्तर का सैद्धांतिक ग्रंथ है जो जीवकाण्ड एवं कर्मकाण्ड इन दो खण्डों में विभक्त है. लब्धिसार में आत्मशुद्धि रूप दश लब्धियों को प्राप्त करने एवं क्षपणासार में कर्मों के क्षय करने की विधि को समझाया गया है. त्रिलोकसार में जैन मान्यतानुसार तीन लोकों का विस्तृत वर्णन है.
उक्त सभी ग्रंथ यद्यपि सैद्धांतिक एवं गंभीर अध्ययन की अपेक्षा रखने वाले हैं लेकिन टोडरमलजी ने उन्हें अत्यधिक सरल एवं सुबोध भाषा में समझाया है. उनकी भाषा राजस्थानी ढूंढारी (गद्य) है जिस पर थोड़ा ब्रज भाषा का भी प्रभाव है. इनकी भाषा में मधुरता एवं आकर्षण है. उस समय इन ग्रंथों की समाज में इतनी आवश्यकता थी कि जैसे ही टोडरमलजी ग्रंथ लिखते उसकी पचासों प्रतियां होकर हाथों-हाथ राजस्थान के ही नहीं किंतु देहली, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब आदि प्रांतों में पहुँच जाती और जन साधारण उनका बड़े उत्साह से स्वाध्याय करते. राजस्थान के बहुत से भण्डारों में आज भी उनके ग्रंथों की हस्तलिखित कितनी ही प्रतियाँ मिलती हैं. इनके ग्रंथों की भाषा के तीन उदाहरण देखिये : जिनके पढ़ने से ग्रंथ की शैली और भाषा दोनों का अच्छी तरह परिचय मिल सकता है :
" जैसे कोड सांचे मोतिनि के गहने विषै झूठे मोती मिलावे परन्तु झलक मिले नाही ताते परीक्षा करि पारखी ठिगावे भी नाहीं. कोई भोला होय सोही मोती नाम करि ठिगावे है बहुरि ताकी परंपरा भी चले नाहीं, शीघ्र ही कोउ झूठे मोतिनका निषेध करे है. तैसे कोउ सत्यार्थ पदनि के समूह रूप जैन शास्त्रनि विषै असत्यार्थ पद मिलावें परन्तु जिनशास्त्र के पदनि विषै तो कषाय मिटावने का वा लौकिक कार्य घटावने का प्रयोजन है और उस पापी ने जे असत्यार्थ पद मिलाए हैं तिनि विषं कषाय पोषने का वा लौकिक कार्य साधने का प्रयोजन है ऐसे प्रयोजन मिलता नाही तातें परीक्षा करि ज्ञानी ठिगावते भी नाही कोई मूरख होय सोहि जैन शास्त्र नामकरि ठिगावे. "
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-मो० ० प्र० पृष्ठ ५८. "भाई बन्धु तो उनका नाम है जो अपना किल्छू हित करें सो तू जिनि को भाई बंधु माने है सो इन ने किछू हित किया होय सो बताय जातें तेरा मानना सांच होइ. बहुरि हम को तो केवल इनिका इतना ही हित करना भास है जो बैरी का बैरी होय ताको अपना हित कहिये है सो तेरा बैरी शरीर था सो तेरे मुंए पीछे मिलि करि इनूं ने शरीर को दग्ध किया. तेरे बैर का बदला लिया. ऐसे इहां युक्ति करि कुटुम्बते हित होता न जानि राग न करना ऐसी शिक्षा - आत्मानुशासन श्लोक २३. जो जीव अर्हतादिकनि करि उपदेश्या हुआ ऐसा जो प्रवचन कहिये आप्त आगम पदार्थ ये तीन ताहि याति कहिये श्रद्ध है, रोच है. बहुरि तिनि आप्तादिकनि विषै असद्भाव कहिये अतत्व अन्यथा रूप ताकौ भी अपने विशेष ज्ञान का अभाव करि केवल गुरु ही का नियोगत जो इस गुरु ने कह्या सोइ अर्हत की आज्ञा है. ऐसी प्रतीति श्रद्धान करें है तो भी सम्यग्दृष्टि ही है. जातिस की आज्ञा का उल्लंघन नाहीं करें है । भावार्थ जो अपने विशेष ज्ञान न होइ . बहुरि जैन गुरु मंदमति ते आप्तादिक का स्वरूप अन्यथा है, अर यहू अर्हत की ऐसी ही आज्ञा है ऐसे मानी जो असत्य श्रद्धान करें तो भी सम्यग्दृष्टि का अभाव न होई जाते इसने तो अर्हत की आज्ञा जानि प्रतीति करी है." - गोम्मटसार गाथा २५. शास्त्र सभा :- - आचार्य कल्प पं० टोडरमलजी १८ वीं शताब्दी के एक क्रांतिकारी साहित्यसेवी थे. जैसा कि पहले कहा
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