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६७० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय जिस भूमि में बीज बोने से तीन दिन में अंकुर निकल जाय ऐसी समचौरस, दीमक रहित, विना फटी हुई और शल्य रहित, तथा पूर्व, ईशान और उत्तर दिशा की तरफ नीची भूमि मकानादि बनाने के लिये प्रशस्त है. दीमक वाली भूमि व्याधिकारक है. ऊसर भूमि उपद्रवकारक है. अधिक फटी हुई भूमि मृत्युकारक और शल्यवाली भूमि दुःख कारक है. किसी भी प्राणी की हड्डी, बाल आदि भूमि में रह जाना शल्य माना है. उसकी शुद्धि के लिये कम से कम तीन फुट भूमि गहरी खोदनी चाहिये. शास्त्र में लिखा है-'मनुष्य की हड्डी का शल्य रह जाय तो मकान मालिक की मृत्यु हो. गधे की हड्डी का शल्य रह जाय तो राजदंड भोगना पड़े. कुत्ते का शल्य रह जाय तो बालक जीवे नहीं. बालक का शल्य रह जाय तो उस मकान में मालिक का निवास नहीं हो, गौ का शल्य रह जाय तो धन का विनाश हो, इत्यादि अनेक दोष शास्त्र में लिखे हैं. इसकी शुद्धि के लिये समरांगणसूत्रधार वास्तुग्रंथ में लिखा है :
'जलान्तं प्रस्तरान्तं वा पुरुषान्तमथापि वा।
क्षेत्र संशोध्य चोद्ध त्य शल्यं सदनगारभेत् ।' पानी आ जाय अथवा पाषाण आ जाय वहाँ तक अथवा एक पुरुष प्रमाण भूमि को खोद करके कोई शल्य होवे तो निकाल देना चाहिए तत्पश्चात् उस भूमि के ऊपर गृह बनाना चाहिए. पीछे जैसे लड़के-लड़कियों के विवाह में राशि, गण, नाड़ी आदि का मिलान किया जाता है वैसे भूमि का क्षेत्रफल, आय, व्यय, राशि, गण, नाड़ी आदि गृहस्वामी के साथ मिलाये जाते हैं. उसी के अनुसार अच्छे शुभ मुहूर्त में चंद्रमा आदि का बल देख करके मकान तैयार किया जाता है. धन, मीन, मिथुन और कन्या इन सूर्य की राशियों में कभी भी गृह का आरंभ नहीं किया जाता. गृहभूमि की लंबाई और चौड़ाई का गुणाकार करने से जो गुणनफल हो उसको क्षेत्रफल कहा जाता है. उसको आठ से भाग देने पर जो शेष बचे वह गृह का 'आय' होता है. क्षेत्रफल को फिर आठ से गुणा करके उसमें सत्ताईस से भाग देने पर जो शेष बचे वह गृह का 'नक्षत्र' होता है. जो नक्षत्र की संख्या आवे उसको आठ से भाग देने से जो शेष बचे वह 'व्यय' माना जाता है. आय के अंक से व्यय कर अंक कम हो तो वह घर लक्ष्मीप्रद माना है. शाला, अलिद (तिवारा), दीवार, स्तंभ, मंडप, जाली और गवाक्ष आदि के भेदों से अनेक प्रकार के गृह बनाये जाते हैं. शास्त्र में गृहों के सोलह हजार तीन सौ चौरासी भेद बतलाये हैं. . गृह के चारों दिशाओं के द्वारों के नाम अलग-अलग है-पूर्व दिशा के द्वार का नाम विजयद्वार, दक्षिण दिशा के द्वार का नाम यमद्वार, पश्चिम दिशा के द्वार का नाम मकरद्वार और उत्तर दिशा के द्वार का नाम कुबेर द्वार है. इनमें से अपनी इच्छानुसार बना सकते हैं. गृह का स्थान-विभाग भी बतलाया गया है--गृह का जिस दिशा में द्वार हो उसको पूर्व दिशा मान करके विभाग बनाते हैं-द्वारवाली पूर्व दिशा में ज्ञानशाला, अग्निकोने में भोजन बनाने का स्थान, दक्षिण दिशा में शयन-गृह, नैऋत्यकोने में निहार (शौच) स्थान, पश्चिम दिशा में भोजन करने का स्थान, वायु कोने में आयुध रखने का स्थान, उत्तर में धन रखने का स्थान और ईशान कोने में धर्मस्थान रखा जाता है. गृह के प्रथम मंजिल तक की ऊँचाई पाँच से सात हाथ' तक रखना लिखा है. गृह का विस्तार जितने हाथ का होवे, उस संख्यातुल्य अंगुल में साठ अंगुल मिलाने से जितनी संख्या आए उतने अंगुल परिमित द्वार की ऊँचाई रखें और ऊँचाई से आधी चौड़ाई रखें. चौड़ाई कुछ बढ़ाना चाहे तो ऊँचाई का सोलहवां भाग चौड़ाई में मिला सकते हैं. गृह के सब द्वार, गवाक्ष और जाली आदि का मथाला बराबर रखा जाता है.
१. प्राचीन समय में अंगुल और हाथ से नापने की प्रणाली थी, अंग्रेजी राज्य होने के बाद इंच फुट और गज आदि सेनापने को प्रणाली
हुई. इसलिये आधुनिक गृर बनाने वाले शिल्पी अंगुल को एक इंच और हाथ को दो फुट मान करके कार्य करते हैं.
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