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बद्रीप्रसाद पंचोली : महावीर द्वारा प्रचारित आध्यात्मिक गणराज्य और उसकी परम्परा ३३१
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देवत्व, अमरत्व तथा इन्द्रपद का साधक माना गया है. जिसके विना देवता भी सहायता नहीं करते. उसकी गणना ऋत, सत्य तथा तप जैसी आध्यात्मिक विभूतियों और राज्य, धर्म और कर्म जैसी पार्थिव शक्तियों के साथ की गई है. आश्रमव्यवस्था का ह्रास होने पर श्रम को जीवन में पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये श्रमणवाद का उदय हुआ. व्यावहारिक जीवन में श्रम मानवतावाद के विकास में सहायक होता है. व्यावहारिक जीवन की इस श्रम-साधना को जैन ग्रन्थों में तप का मार्ग कहा गया है. यही श्रमसाधना सूक्ष्म शरीर में जागृत होकर मोक्ष साधिका बनती है. भगवान् महावीर ने अपने संघ के चार वर्ग नियत किये थे—मुनि, आर्यिकागण, श्रावक तथा श्राविकाएँ, इनमें अन्तिम दो में जैन शासन के अनुयायी ऐसे गृहस्थ स्त्री-पुरुष गिने जाते हैं जो केवल व्यावहारिक जीवन में श्रम की प्रतिष्ठा के अनुरागी हों. प्रथम दो, वे हैं जो वीतरागजीवन ग्रहण करके श्रम के व्यावहारिक रूप की प्रतिष्ठा 'शम' में करें. महावीर की तरह बुद्ध का ध्येय भी 'श्रम' की प्रतिष्ठा 'शम' में करना ही रहा है.
शमयिता हि पापानां श्रमण इति कथ्यते.
श्रम को शम से भिन्न मान कर जीवन-यापन करने वाले लोगों को महावीर ने 'मिथ्यादृष्टि अनार्यश्रमण '६ कहा है. श्रम के प्रति बुद्ध और महावीर का यह दृष्टिकोण तत्कालीन परिस्थितियों में नितान्त दूरदर्शितापूर्ण था. उस समय भारतवर्ष में गणव्यवस्था का पतन हो रहा था और भारत के पड़ोस में फारस में विशाल साम्राज्य जन्म ले रहा था. किसी भी क्षण साम्राज्यवादी दृष्टि सम्पूर्ण भारत को आत्मसात् कर सकती थी. केन्द्रीय शक्ति के अभाव में पारस्परिक फूट, विलासिता और आलस्य से जर्जरित गण अपनी रक्षा में समर्थ नहीं हो सकते थे. अत: समाज के कल्याण को अपनी दायाद्य मानने वाले ब्राह्मण बिखरी हुई शक्तियों को राजतन्त्र द्वारा केन्द्रित करने का प्रयत्न करने लगे और दूसरी ओर श्रमण ( श्रमजीवी) श्रम को ही तन्त्र ( व्यवस्था ) का आधार मान कर गणभक्ति छोड़ न सके.
ब्राह्मण 'सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा' का उद्घोष करते हुए स्वयं स्वतन्त्र रहकर केवल 'विश्' (साधारण प्रजा) के लिये राजा की व्यवस्था देते थे. अतः नितान्त स्वतन्त्रता के अभिलाषी लोगों को इसमें ब्राह्मणों की स्वार्थसिद्धि दिखाई दी और इस प्रकार दोनों विचारधाराओं के अनुयायियों के बीच भी खाई बढ़ती गई. यह श्रमण-ब्राह्मणों का शाश्वत विरोध विदेशी आक्रान्ताओं को निमंत्रित कर सकता था. सचमुच ही एक बार फारसी साम्राज्य की सीमा सिन्धु तक आ पहुँची थी.
बुद्ध और महावीर दोनों ने ही इस विरोध को दूर करने का प्रयत्न किया. उन्होंने श्रमणत्व और ब्राह्मणत्व को अभिन्न माना है. महावीर ने कहा है :
जो ऐसे दान्त, मोयोग्य और कायाव्युत्सृष्ट (ममतात्यागी हैं, उन्हें ब्राह्मण कह सकते हैं, श्रमण, भिक्षु या निर्बन्ध भी कह सकते है. 5
इस प्रकार इन दोनों ही युगदर्शी महापुरुषों ने सामाजिक क्षेत्र में श्रम के प्रति जिस नवीन दृष्टिकोण को उपस्थित किया वह राष्ट्र रक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था.
Jain Exon Inten
१. ऋग्वेद ३६०१२, १/११०१३, ३६०/३, १/११०/४.
२. ऋग्वेद ४।३४।४.
३. अथर्ववेद ११६/१७ ८/६६.
४. उत्तराध्ययन सूत्र - अध्याय १३.
५. धम्मपद २०११०.
६. सूत्र कृतांगसूत्र १।११।३६.
७. येषां विरोधः शाश्वतिकः इत्यस्यावकाशः श्रमण ब्राह्मणम्. पातंजल महाभाष्य २/४६. ८. सूत्रकृतांगसूत्र १।११।३६.
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