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श्रीसूर्यनारायण व्यास
पद्मविभूषण, ज्योतिषाचार्य, डी० वि०
कालिदास और विक्रम पर एक विचार
अनेक विद्वानों की मान्यता के अनुरूप भास का काल चाणक्य और चन्द्रगुप्त का था. नाट्य-कला के मार्गदर्शक होने के कारण भास की कीर्ति उस समय पर्याप्त रही होगी. विदिशा के शुंगों के शासन के समय से ही कवियों की वाणी और नाट्य-कला में पर्याप्त विकास तथा भाषा में संस्कार हो गया था. भासकाल की अपेक्षा पर्याप्त विकास विदित होता है. संस्कृत को तब लोकभाषा का सम्मान सुलभ हो गया था. पाणिनि के प्रयोग उतने प्रचलित नहीं हो पाये थे. नाट्यकला सुविकसित, नियमबद्ध नहीं हो पाई थी. अभी तक भास के पूर्ववासियों के नाटक प्रकाश में नहीं आये हैं. परन्तु भास के नाटक विविध भेदों में प्रकाश का विषय बन चुके थे. इससे यह विदित हो सकता है कि इस कला में वह काल कितना प्रगतिशील था.
मेकडॉनल्ड, कीथ प्रभृति पंडितों की यह मान्यता कि भरत में ग्रीस की नाट्य कला का अनुसरण हुआ है क्योंकि ई० स० पूर्व तीसरी शती में भारत का ग्रीस से व्यवहार होता था. सेल्यूकस ने अपनी लड़की चन्द्रगुप्त को दी थी. टॉलमी का भी आवागमन बना रहता था तथा एक दूसरे के राजदूतों का व्यवहार जारी था. आलक्जेण्डर के शासन से भृगुकच्छ द्वारा नर्मदा-पथ से स्थलमार्ग द्वारा उज्जैन से सम्बन्ध बना हुआ था. विदिशा में स्वयं वहाँ का राजदूत हेलियो डोरस रहता था. यही नहीं, उसने भागवत-धर्म भी स्वीकार कर लिया था, यह विदिशा का गरुड-स्तम्भ साक्षी दे रहा है. ग्रीक इतिहास से प्रकट है कि ब्राह्मण लोग ग्रीस के साहित्य में अनुराग भी रखते थे. किन्तु भारत का नाट्य ग्रंथ अधिक पुरातन है, भास के नाटकों में विशेष रूप से उनका अनुकरण प्रतीत होता है. सम्भव है भास की उन्नति और कीर्ति ने कालिदास को स्पर्धा के लिये बाध्य किया हो और इसी के वश हो कालिदास ने अपने नाटकों में कला का पूर्ण परिपाक बतलाया हो. संभवतः कालिदास ने भास का इसी कारण नामोल्लेख कर नाट्यजगत् में अभिनव प्रवेश मालविकाग्निमित्र के रूप में किया हो. अनेक अंशों में राजा, नायिका, उपनायिका, विदूषक चेटी आदि की जो समता भास और कालिदास में मिलती है और उनका विकास जितनी सुन्दरता से कालिदास कृति में मिलता है, उतना भास में नहीं. वैसे भी भास - कालिदास के काल में समता को लक्ष्य में रखते हुए १००-१२५ वर्ष का ही अन्तर लक्षित होता है. उसने अपने साहित्यिक जीवन का आरम्भ भास की कला को विकसित कर तथा अग्निमित्र जैसे अल्प प्रसिद्ध युवराज का आश्रय लेकर किया होगा और कीर्तिशाली बन गया होगा. दिङ्नाग, प्रव्रज्या, भिक्षुणी आदि का उल्लेख बुद्धप्रभाव को प्रकट करता है. शुंग काल तक यह प्रभाव मध्य भारत में रहा है. वासवदत्ता के अपहरण के समय प्रच्छन्नवेष में निर्ग्रन्थ भिक्षुओं का प्रवेश होने लग गया था, अन्यथा, विक्रम की समुन्नति से कालिदास की कला उल्लेखरहित नहीं रहती. अस्तु, यहाँ हमारा अभिप्राय तर्कों और उदाहरणों से विस्तार करना नहीं है. कालिदास की तरह ही विक्रम भी विद्वज्जनों की विचार-विश्लेषण की परिधि में परिभ्रमण कर रहा है. विक्रमादित्य के विषय में भी दो विचारधाराएँ हैं. प्रथम धारा विक्रम को ६० सन् पूर्व ५७ वर्ष में स्वीकार करती है. और दूसरी द्वितीय चन्द्रगुप्त को ही एकाधिकार प्रदान करती है. यह आज से नहीं शताब्दियों पूर्व से है. पिछले विद्वानों को इस द्वैत का पूर्ण ज्ञान रहा है, किन्तु जो लोग स्मिथ को मील का पत्थर मानकर अपनी प्रज्ञा के प्रयास की परिधि केन्द्रित कर देते हैं उनके ज्ञान की परप्रेरितावस्था पर खेद प्रकट करना भी निरर्थक है. ये द्वितीय चन्द्रगुप्त को छोड़कर अपने ज्ञान की दौड़ को आगे का श्रम ही स्वीकार नहीं करते.
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