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मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन वृत्त : ३७ करता हूँ. यह समय इनके पूर्वाभ्यास का है. मैं अनुभव कर रहा हूँ कि ये आचार्य पद के उत्तरदायित्व को दक्षतापूर्वक निभा सकते हैं. संघ इनके नेतृत्व में रत्नत्रय की वृद्धि करता हुआ आध्यात्मिक पथ पर निरंतर बढ़ता रहे, यही मेरी आन्तरिक अभिलाषा है. आचार्यश्री रायचन्द्र जी का जन्म, सं० १७९६ आसौज शुक्ला एकादशी को जोधपुर में हुआ था. माता नन्दादेवी और पिता विजयराज धाड़ीवाल थे. इन्होंने किशोरावस्था व यौवनावस्था के संधिस्थल पर खड़े होकर मुनिदीक्षा का भीष्म निर्णय किया था. स्वामी श्री गोरधनदास जी द्वारा सं० १८१४ आषाढ़ शुक्ला एकादशी को मारवाड़ के प्रसिद्ध पुरातन नगर पीपाड़ में भागवती दीक्षा ग्रहण की थी. ३६ वर्ष १० माह और ६ दिन तक मुनिजीवन के कठोर विधि-निषेधों में रहकर आचार्य जयमल जी की दृष्टि में युवाचार्य पद की योग्यता प्राप्त कर ली थी. समग्र मुनि जीवन ५४ वर्ष ६ माह और १८ दिन तक अत्यन्त दृढ़तापूर्वक व्यतीत किया. इनके वैराग्योद्गम की कहानी अत्यंत अद्भुत है. किशोर और यौवन अवस्था के मदभरे दिन थे. माता-पिता ने सुशील कन्या से पाणिग्रहण करने की तैयारी कर ली थी. स्वजन-परिजन पर्याप्त मात्रा में उपस्थित हो गये थे. घर में स्त्रियाँ मंगलगीत गा रही थीं. अड़ोस-पड़ोस से विवाह की शुभ कामना स्वरूप भोजन (बिंदोला) के निमंत्रण वश घर-घर क्रमशः भोजन करने जाना पड़ता था एक दिन (बिंदोला आरोगणने पडोसी रे घरे पधारया हा) भोजन करते-करते अकस्मात् वैराग्य भाव के अंकुर फूट पड़े. विवाह की तैयारी जहाँ की तहाँ रह गई और थोड़े ही दिनों बाद दीक्षा का बिंदोला प्रारंभ हो गया और आप मुनिव्रत धारण कर वीरवती बन गये. इन्होंने ज्ञानधन का विपुल अर्जन किया था. दर्शनशास्त्र पढ़ा. लक्षणग्रंथों पर अधिकार प्राप्त किया. वह युग, पद्य की प्रतिष्ठा का युग था. अतः इन्होंने तत्त्वात्मक, उपदेशात्मक, स्तुत्यात्मक एवं कथात्मक पद्यों की राजस्थानी भाषा में रचना की. वे रचनाएँ राजस्थान के विभिन्न प्राचीन भण्डारों में आज तक बराबर मिलती जा रही हैं. परन्तु इस यंत्रयुग में भी कोई ऐसा अन्वेषक नहीं उत्प्रेरित हुआ जिसने प्राचीन मुनियों की मूल्यवान रचनाओं को प्रकाशित कर जनता के समक्ष उपस्थित किया हो. मैंने इनकी विपुल रचनाओं का एक संग्रह 'रायरचना' के नाम से तैयार किया है जो शीघ्र प्रकाश में आने वाला है. आपने ७ भव्यात्माओं को दीक्षा प्रदान कर उनकी शिक्षा-दीक्षा, तप, त्याग, वैराग्य आदि का दायित्व वहन किया था. आपकी सम्पूर्ण आयु ७२ वर्ष ३ माह की थी. सं० १८६८ माघकृष्ण चतुर्दशी को देहोत्सर्ग किया.
प्राचार्य श्रीवासकरणजी
आचार्य श्री रायचन्द्र जी ने संवत् १८५७ आषाढ़ कृष्णा पंचमी के दिन श्रीआसकरण जी म० को युवाचार्य पद प्रदान किया. निरीक्षण करते रहे कि आचार्य-पद का महान् दायित्व परिवहन करने में ये कितने सक्षम हैं. कालांतर में आचार्यश्री को विश्वास हो चला कि आचार्य-पद का उत्तरदायित्व ये कुशलतापूर्वक वहन कर सकेंगे. आचार्य श्रीरायचन्द्रजी म. के स्वर्गवास के पश्चात् आपने सं० १८६८ माघ पूर्णिमा के दिन मेड़ता में आचार्य-पद ग्रहण किया. जयगच्छ सुयोग्य नेतृत्व प्राप्त कर प्रमुदित हुआ आचार्य श्रीआसकरणजी का जन्म, तिवरी (तिमरपुर राज०)में संवत् १८१२ मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया को हुआ था. माता गीगादे और पिता रूपचन्द्र जी बोथरा थे. इनका गृही जीवन साड़े सोलह वर्ष रहा. आचार्य श्रीजयमलजी म. द्वारा सं० १८३० वैशाख कृष्णा पंचमी को तिवरी में मुनिदीक्षा धारण की थी. इनके वैराग्योद्गम की कहानी बड़ी महत्त्वपूर्ण है. आसकरणजी के वाग्दान की तैयारी हो चुकी थी. माता परम प्रसन्न थी. मेरे घर में जिस चांद-सी बहूरानी का आगमन होनेवाला है, उसके अभिभावक आज वाग्दान कर वचनबद्ध होंगे.
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