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साध्वी कुसुमवती सिद्धान्ताचार्या : भारतीय संस्कृति में संत का महत्त्व : ५६६
मुनि है. आग बबूला होकर उसने मुनि के शरीर पर सिर से लगाकर पैर पर्यन्त गीला चमड़ा गाढ़ बन्धनों से बांध दिया. ज्यों-ज्यों चमड़ा सुखता है, त्यों-त्यों मुनि के शरीर की नसों के जाल टूटने लगे. ऐसे समय में भी मुनि ने नहीं प्रकट किया कि कुक्कुट ने यव खायें हैं. अपने प्राणों की आहुति देकर भी उन्होंने उसकी जान बचाई. वहाँ काष्ठभारी डालने वाला आता है. ज्यों ही वह काष्ठ की भारी को भूमि पर डालता है, जोर का शब्द होता है और उसके भय से कुक्कुट बीट करता है. उसमें वे स्वर्णयव निकल आते हैं. उन स्वर्ण यवों को देखकर स्वर्णकार को अपनी अविचारित करनी पर महान् पश्चात्ताप होता है. वह सोचता है-'हाय, निर्दोष मुनि की हत्या का पाप मैंने कर डाला.' उसे इतना पश्चात्ताप होता है कि वह घर-बार छोड़कर उसी समय मुनि बन जाता है. संत पुरुष के जीवन में इस प्रकार की कष्टसहिष्णुता और दयालुता होती है. संत का आंतरिक जीवन-भ० महावीर का कथन है कि आंतरिक जीवन की पवित्रता के बिना कोई भी बाह्य आचार, कोई भी क्रियाकाण्ड या गम्भीर विद्वत्ता व्यर्थ है. संख्या के विना हजारों बिन्दुओं का कोई मूल्य नहीं है, धन राशि के विना तिजोरी का कोई महत्त्व नहीं है, उसी प्रकार अन्तःशुद्धि के विना आध्यात्मिक दृष्टि से बाह्याचार का कोई मूल्य नहीं है. जो क्रियाकाण्ड केवल काय से किया जाता है, और अन्तरतर से नहीं किया जाता है, उससे आत्मा पवित्र नहीं बनती. आत्मा को निर्मल और पवित्र बनाने के लिये आत्मस्पर्शी आचार की अनिवार्य आवश्यकता है. सभी सन्त समान तो नहीं होते किन्तु विश्व में अनेकों ही ऐसी विरल विभूतियाँ भी आपको दिखाई देगी, जो अंत:शुद्धि पूर्वक बाह्य क्रियायें करती हैं. ऐसे व्यक्ति अभिनन्दनीय हैं. वे नि:स्सन्देह परम कल्याण के भागी होते हैं. संत के जीवन में प्रथम निश्चय भाव आता है और फिर व्यवहार भाव. निश्चय का अभिप्राय है, अपने मन में किसी आदर्श अथवा लक्ष्य को स्थापित करना. जब मनुष्य, जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तो वह सोचने लगता है कि वह कौन से मार्ग पर आगे बढ़े, कौनसी प्रेरणा लेकर चले तो लक्ष्य को प्राप्त करले ? ऐसा मानव ही बुराइयों से लड़ेगा और अच्छाइयों को ग्रहण करेगा. इस प्रकार निश्चय भाव पहिले और व्यवहार भाव बाद में आता है. संतों का अंतर्मानस सदा जागृत रहता है. वह आंतरिक जीवन में कभी सोता नहीं है. भले ही वे ऊपर-ऊपर से सोये हुए दिखाई दें किन्तु उनका अन्तार्जीवन निरन्तर जागरूक बना रहता है. भगवान महावीर ने फरमाया है:-"सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरंति" -आचारांग. संत के जीवन में ज्ञान रूप ज्योति निरन्तर जगमगाती रहती है. उनके जीवन से विश्व में तप-संयम रूप सौरभ निरन्तर महकती रहती है. उनके जीवन में सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र का अक्षय कोष भरा रहता है. इस प्रकार सन्त का आन्तरिक जीवन तप, जप की ज्योति से जाज्वल्यमान होता हुआ विशुद्वि की ओर बढ़ता चला जाता है.
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