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५६४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
समयतोऽनुजानामि. यदि तावत्प्रवज्य सर्वक्लेशप्रहाणादह त्वं साक्षात्करोषि, एषा एव दुःखान्त:. अथ सावशेषसंयोजना कालं कृत्वा देवेषूपपद्यसे, देवभूतया ते ममोपदर्शयितव्यमिति. सा कथयति-देव, एवं भवत्विति. (दिव्यावदान, पृ. ४७०) यही वर्णन आचार्य हेमचन्द्र के महावीरचरित्र में इस प्रकार है :
तामन्यदार्चामचित्वा प्रमोदेन प्रभावती, पत्या समेता संगीतमविगीतं प्रचक्रमे । तानौघानुगतश्रव्यं व्यक्तव्यंजनधातुकम् , व्यवस्वरं व्यक्तरागं राजा वीणामवादयत् । व्यक्तगांहारकरण सर्वांगाभिनयोज्जवलम् , ननत देव्यपि प्रीता लास्यं ताण्डवपूर्वकम् । राजान्यदा प्रभावत्या न ददर्श शिरः क्षणात्, नृत्यन्तं तत्कबन्धं तु ददर्शाजिकबन्धवत् । अरिष्टदर्शनेन द्राक् क्षुभितस्य महीपतेः, तदोपसर्पन्निद्रस्येवागलत् कंबिका करात् । अकाण्डताण्डवच्छेदकुपिता राश्यथावदत्, तालच्युतास्मि किमहं वादनाद्विरतोऽसि यत् । इत्थं पुनः पुनः पृष्टः कम्बिकापातकारणम् , तत्तथाख्यन्महीपालो बलीयान् स्त्रीग्रहः खलु । रायूचे दुनिमित्तेनामुनाल्पायुरहं प्रिय, अाजन्माईद्धर्मवत्या मृत्युरप्यस्तु नास्ति भी। प्रत्युतानन्दहेतुर्मे दुनिमित्तस्य दर्शनम्, तज्ज्ञापनाय भवति यत्सर्वविरतौ मम । अनिमित्तद्वयाख्याताल्पायुषः समयोचिते, प्रव्रज्याग्रहणे मेऽद्य प्रत्यूह नाथ मा कृथाः । एवमुक्तः सनिर्बन्धमभ्य-धाद्वसुधाधवः, अनुतिष्ठ महादेवि यत्तुम्यमभिरोचते ।
देवत्वमाप्तया देवि बोधनीयस्तयान्वहम्, स्वर्गसौख्यान्तरायेऽपि सोढव्यो मत्कृते क्षणम् । उपरोक्त अवतरणों से जैन और बौद्ध लेखों में कितनी बड़ी अभिन्नता है यह स्पष्ट मालूम होता है. मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि दिव्यावदान के उद्रायण नाम के बदले में जैन नाम उदायन या जैन नाम उदायन के बदले में बौद्धनाम उद्रायण लिपि या पाठभेद के कारण ही है. क्योंकि बौद्धों और जैनों के ग्रन्थों में इस नाम के कई पाठभेद मिलते हैं. दिव्यावदान में रुदायण ही सर्वत्र प्रयुक्त हआ है लेकिन कई प्रतियों में रुद्रायण' के स्थान में 'उद्रायण' का भी प्रयोग हुआ है. इसी प्रति में एक जगह तो 'उद्रायण' ही पाठ आया है
मुक्तो ग्रन्यैश्च योगैश्च शत्यैनीवरणैस्तथा, अद्याप्युद्रायणो भिक्षु राजधमैन मुच्यते । -दिव्यावदान पृ० ४८०. क्षेमेन्द्र के अवदानकल्पलता में सर्वत्र उद्रायण का ही प्रयोग हुआ है. उदाहरणार्थ :
बभूव समये तस्मिन् रौरुकाख्ये पुरे नृपः, श्रीमानुद्रायणो नाम यशश्चन्द्रमहोदधिः । कदाचिदिव्यरत्नांकं कवचं कांचनोज्ज्वलम्, प्राहिणोद् बिम्बिसाराय सारमुद्रायणो नपः । बिम्बिसारस्य हस्तांकलेखामुद्रायणो नपः, उद्रायणस्य नपतेरायः कात्यायनोऽथ सः ।
-अवदानकल्पलता पृ० २५६ इन अवतरणों से यह स्पष्ट मालूम होता है कि बौद्धग्रन्थों में असली नाम रुद्रायण नहीं किन्तु 'उद्रायण' ही था. यह नाम जैन ग्रन्थकारों का भी सम्मत है. भगवतीसूत्र और आवश्यक चूणि में 'उद्दायण' भी पाठ आता है. जिसका संस्कृत रूप 'उद्रायण' होता है. जैन संस्कृत टीकाकारों ने इसी शब्द को 'उादयण' के रूप में संस्कृत किया है. जैन और बौद्ध कथा में कितना बड़ा साम्य है, यह हम ऊपर देख आये हैं. इस विलक्षण साम्य का मूल खोज निकालना कठिन कार्य है. इस कथा को किसने किससे उधार लिया है ? या उस समय उदायन विषयक स्वतंत्र आख्यान को जैन व बौद्धों ने अपने साँचे में ढालने का प्रयत्न किया है ? जिसका निर्णय करना हमारी शक्ति के बाहर है.
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