________________
मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : ३३
落深渊深深靠著游游游来来来靠接購購
जीवन व्यतीत कर रहे हैं, इस ओर कभी ध्यान ही न दें तो निस्संदेह, उस मानव को मानव के परिधान में पशु कहना होगा. स्वामीजी की करुणा-धारा आवश्यकता के अनुसार मनुष्यों और पशुओं की ओर मुड़ जाती थी क्योंकि 'खामेमि सव्वे जीवा, सब्वे जीवा,.......वेरं मज्झं न केणइ.' भावना की इस भावगंगा में उन्होंने अपने आपको निमज्जित किया था. स्वाभाविक ही था वह उनके जीवन के प्रत्येक व्यवहार व कर्म से प्रकट होती. एक बार उन्होंने देखा कि 'तिवरी' के आस-पास इस वर्ष सुकाल न होने के कारण साधारण जनता भारी संकट में है. व्यापक अभाव व्याप्त है. रोटी-रोजी के और वस्त्र के अभाव में तिवरी के आस-पास के अभावग्रस्त लोग रेलवेलाईन पर सामर्थ्य है तो और नहीं है तो, दिनभर खटते हैं-छोटे-छोटे बच्चों को साथ लेकर-मेहनत मजदूरी करते हैं. उन्होंने गंभीरतापूर्वक सोचा. अपने प्रवचन को मोड़ दिया. निपुण व्याख्याता वही कहलाता है जो मानव समस्या को लक्ष्य में रखकर विवेचन करता है और सत्य के दर्शन कराता है. अत: उस समय उन्होंने अपने उपदेशों में इस समस्या को सामने रखकर प्रवचन करने प्रारम्भ किये. 'जो श्रम कर रहे हैं, उन्हें श्रम इस स्थिति में ही क्या हर अवस्था में करना होगा. श्रम के बिना किसी से दान स्वरूप सहयोग लिये जाने से तात्कालिक समस्या का हल होता है. वह उस काल तक ही सीमित होकर रह जाता है. यह स्पष्ट है कि वह स्थायी हल नहीं है. साथ ही इस प्रकार से बिना श्रम के प्राप्तव्य से श्रम के प्रति अनास्था उत्पन्न होती है. तथापि साधनसम्पन्न मनुष्य का इस हालत में धर्म हो जाता है कि वह अभावग्रस्तों को सुविधा पहुँचाये. अस्तु, उनके सतर्क करुणाभाव-प्रतिपादक उपदेशों से प्रेरित होकर प्रसिद्ध उद्योगपति श्रीजुगराजजी श्रीश्रीमाल ने अभावग्रस्त लोगों के लिये यथायोग्य वस्त्र व भोजनादि की व्यवस्था की.' प्रस्तुत प्रसंग में एक और करुणा का साकार घटित स्वरूप प्रस्तुत करना अप्रासंगिक न होगा. एक बार नागोर के समीपवर्ती क्षेत्रों में चारे के अभाव में पशुओं का जीना दूभर हो गया था. उस समय उन्होंने दुष्काल के संकट के परिणामों को सामने रखकर अपने प्रवचनों में पशुओं की उपयोगिता और उनके द्वारा मानव जाति के लिये होनेवाले लाभों का प्रतिपादन किया. अनुदिन के प्रवचनों में प्रकारान्तर से यह विषय उपस्थित किया कि 'धार्मिक पुरुषों के लिए इस समय इस समस्या का निराकरण करना ही आध्यात्मिक साधना का सार है !'
__स्थानकवासी सम्प्रदाय का उद्गम, विकास और परम्परादर्शन
भारत की निर्माण सन्त सम्प्रदायों की परंपरा बुद्धिवादी परंपरा कहलाती है. भावविह्वलता का अतिरेक सदा नहीं रहता. उसका एक समय होता है. उम्र की सलवट ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है त्यों-त्यों मनुष्य यथार्थवादी होता जाता है. जैन-परम्परा में भी महावीर के बाद सन्तों में साकार और निराकार धारा का प्रस्फुटन हुआ. लगभग सभी धर्मों में उपासना की दो धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं. इन धाराओं को साकार और निराकार कहा जाता रहा है. भक्ति युग में इसे सगुण और निर्गुण नाम से अभिहित किया गया. भगवान् म० के सैकड़ों वर्षों बाद भारत के बहुत बड़े भाग में भयंकर दुष्काल पड़ा था. उस समय अन्नसंकट-जनित अस्तव्यस्तता के परिणामस्वरूप जैनधर्म की निराकार धारा अन्तःसलिला हो गई थी. किंतु इस धारा का यह सौभाग्य रहा कि इसका साहित्य रह गया था. पन्द्रहवीं शती तक यह धारा अन्तःसलिला ही बनी रही. सोलहवीं शती के तृतीय दशक में लोकाशाह नामक क्रान्तिकारी वीर पुरुष का उदय हुआ. वह परम बौद्धिक और विचारक था. उसने तत्कालीन श्रमणों के भयंकर पतन को देखा, तो उसका लौहपुरुष विद्रोह कर उठा. लोकाशाह ने धर्मग्रंथों का अध्ययन प्रारम्भ किया, उसे निराकार की अन्तःसलिला का निनाद सुनाई देने लगा. उसने अधिक तत्परता व लगन से आगमों का गहन एवं सूक्ष्म अध्ययन और चिन्तन किया. लोकाशाह को पता लगा
Jain EOS
www.janelibrary.org