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५७६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय आप मुझे उस यथार्थ उपाय का उपदेश कीजिए, जिसके अनुसार मैं धर्म का आचरण कर सकू ?' पिता ने कहा--'बेटा ! द्विज को चाहिए कि वह पहले ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करे फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर के पितरों की सद्गति के लिए पुत्र पैदा करने की इच्छा करे. विधि-पूर्वक विविध अग्नियों की स्थापना करके यज्ञों का अनुष्ठान करे. तत्पश्चात् वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे. उसके बाद मौनभाव से रहते हुए संन्यासी होने की इच्छा करे.' पुत्र ने कहा-'पिता ! यह लोक जब इस प्रकार से मृत्यु द्वारा मारा जा रहा है, जरा अवस्था द्वारा चारों ओर से घेर लिया गया है, दिन और रात सफलता पूर्वक आयुक्षय रूप काम कर के बीत रहे हैं, ऐसी दशा में भी आप धीर की भांति कैसी बात कर रहे हैं ?' पिताने पूछा--'बेटा ! तुम मुझे भयभीत-सा क्यों कर रहे हो ? बताओ तो सही, यह लोक किससे मारा जा रहा है, किसने हमें घेर रखा है और यहां कौन से ऐसे व्यक्ति हैं जो सफलता पूर्वक अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं. पुत्र ने कहा-'पिता ! देखिए यह सम्पूर्ण जगत् मृत्यु के द्वारा मारा जा रहा है. बुढ़ापे ने इसे चारों ओर से घेर लिया है. और ये दिन-रात ही वे व्यक्ति हैं जो सफलता पूर्वक प्राणियों की आयु का अपहरण स्वरूप अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं, इस बात को आप समझते क्यों नहीं ?' 'ये अमोघ रात्रियां नित्य आती हैं और चली जाती हैं. जब मैं इस बात को जानता हूं कि मृत्यु क्षणभर के लिये भी रुक नहीं सकती और मैं उसके जाल में फंसकर ही विचर रहा हूं तब मैं थोड़ी देर भी प्रतीक्षा कैसे कर सकता हूं ?' 'जब एक-एक रात बीतने के साथ ही आयु बहुत कम होती चली जा रही है तब छिछले जल में रहनेवाली मछली के समान कौन सुख पा सकता है ?' जिस रात के बीतने पर मनुष्य कोई शुभ कर्म न करे. उस दिन को विद्वान् पुरुष 'व्यर्थ ही गया' समझे. मनुष्य की कामनाएं पूरी भी नहीं होने पाती कि मौत उसके पास आ पहुंचती है. जैसे घास चरते हुए मेढे के पास अचानक व्याघ्री पहुंच जाती है और उसे दबोचकर चल देती है, उसी प्रकार मनुष्य का मन जब दूसरी ओर लगा होता है, उसी समय सहसा मृत्यु आ जाती है और उसे लेकर चल देती है. इसलिए जो कल्याणकारी कार्य हो, उसे आज ही कर डालिए, क्योंकि जीवन निःसन्देह अनित्य है. धर्माचरण करने से इहलोक में मनुष्य की कीति का विस्तार होता है और परलोक में भी उसे सुख मिलता है. अतः अब मैं हिंसा से दूर रहकर सत्य की खोज करूंगा, काम और क्रोध को हृदय से निकालकर दुःख और सुख में समान भाव रखुंगा तथा सबके लिये कल्याणकारी बनकर देवताओं के समान मृत्यु के भय से मुक्त हो जाऊंगा. मैं निवृत्ति परायण होकर शान्तिमय यज्ञ में तत्पर रहूंगा. मन और इन्द्रियों को बस में रखकर ब्रह्म-यज्ञ में लग जाऊंगा ओर मुनि-वृत्ति से रहूंगा. उत्तरायण मार्ग से जाने के लिये मैं जप और स्वाध्याय रूप वाग्यज्ञ, ध्यान रूप मनोयज्ञ और अग्निहोत्र एवं गुरुसुश्रूषादि रूप कर्म-यज्ञ का अनुष्ठान करूंगा.
पशुयज्ञः कथं हिंस्रमादिशो यष्टुमर्हति,
अंतवद्भिरिव प्राज्ञः क्षेत्रयः पिशाचवत्. मेरे जैसा विद्वान् पुरुष नश्वर फल देनेवाले हिसायुक्त पशुयज्ञ और पिशाचों के समान अपने शरीर के ही रक्त-मांस द्वारा किये जाने वाले तामसयज्ञों का अनुष्ठान कैसे कर सकता है ? जिसकी वाणी और मन दोनों सदा भली भाँति एकान रहते हैं तथा जो त्याग, तपस्या और सत्य से सम्पन्न होता है, वह निश्चय ही सब कुछ प्राप्त कर सकता है. संसार में विद्या (ज्ञान) के समान कोई नेत्र नहीं है. सत्य के समान कोई तप नहीं है, राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है.
OXO
JainERA
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