________________
पं० के० भुजबली शास्त्री : कर्णाटक के जैन शासक : ५७१ गंग शासक जैन धर्मावलंबी थे. इस वंश के आदिम ऐतिहासिक पुरुष माधव और दडिग दोनों जैनाचार्य सिंहनंदी के शिष्य थे. सिंहनंदी के ही द्वारा गंगवाडि राज्य स्थापित हुआ था. इस वंश के शासकों ने ई० सन् २५० से १७५ तक राज्य किया था. ई० सन् ४७५ में राज्य करने वाले इस वंश के शासक अविनीत के गुरु, जैन पण्डित विजयकीति थे. यह अविनीत विद्वान् था. दुविनीत इसी का पुत्र था. यह दुविनीत प्रसिद्ध जैनाचार्य पूज्यवाद का शिष्य रहा. इस वंश के शासकों ने पल्लव, चोल और चालुक्यों को जीत कर कर्णाटक का दीर्घ काल तक वैभव पूर्वक शासन किया. दुविनीत के पुत्र मुष्कर के नाम से धारवाड़ जिलांतर्गत लक्ष्मेश्वर में एक सुन्दर जिनमंदिर निर्माण कराया गया था. इसी वंश के प्रतापी राजा मारसिंह ने चेर, चोल और पाण्ड्य राजाओं को पूर्णतः हराया था. यह जैनधर्म का पक्का अनुयायी था. मारसिंह वैभवपूर्वक राज्य शासन कर अंत में राज्य को त्याग कर, जैनाचार्य गुरु अजितसेन के पादमूल में जिनदीक्षा लेकर, धारवाड़ जिलांतर्गत बंकापुर में, ई० सन् ६७५ में, समाधि मरण पूर्वक स्वर्गवासी
हुआ था.
श्रवण बेल्गोल में विश्वविख्यात बाहुबली की मूर्ति को स्थापित करने वाला वीरमार्तण्ड चावंडराय इसी मारसिंह का मंत्री एवं सेनानायक था. इसे त्रिभुवनवीर, सत्ययुधिष्ठिर, वीरमार्तण्ड आदि अनेक उपाधियाँ प्राप्त थीं. चावंडराय सिद्धांतचक्रवर्ती नेमिचन्द्रजी का शिष्य था. इसके द्वारा गंगराज्य और जैनधर्म दोनों की आशातीत उन्नति हुई थी. चावूडराय संस्कृत, कन्नड आदि भाषाओं का बड़ा पण्डित था. खैर, गंगो का अस्तित्व कर्णाटक में सोलवीं शताब्दी तक मौजूद था. इस वंश के अवसान के बाद कर्णाटक में होयसल शासकों ने जैनधर्म को आश्रय दिया. होय्सल वंश के मूल पुरुष सल ने जैन-मुनि सुदत्त की सहायता से ही इस वंश को स्थापित किया था. बाद में इस वंश के शासक विनयादित्य ने जैनाचार्य शांतिदेव के आशीर्वाद से गंगवडि का महामण्डलेश्वर हुआ. इसने अपने शासनकाल में अनेक जिनमंदिर और सरोवरों को निर्माण कराया था. विनयादित्य का पुत्र युवराज एरेयंग बड़ा वीर था. इसने अपने श्रद्धेय गुरु आचार्य गोपनंदी को, श्रमणबेल्गोलस्थ चंद्रगिरि के जिनालयों के जीर्णोद्धार के लिये कतिपय ग्रामों को दान में दे दिया था. ये सब बातें श्रवणबेल्गोल के शिला लेखों में स्पष्ट अंकित हैं. विनयादित्य के उपरांत बल्लाल शासक नियुक्त हुआ. यह बल्लाल जब एक भयंकर रोग से पीड़ित हुआ, तब श्रवणबेल्गोल के तत्कालीन मठाधीश चारुकीर्तिजी ने ही उसे उस रोग से मुक्त किया था. इसके उपलक्ष्य में बल्लाल ने चारुकीतिजी को 'बल्लालजीवरक्षक' उपाधि से अलंकृत किया था. बल्लाल के मामा दण्डनायक मरियण्ण ने सुखचंद्राचार्य के नेतृत्व में बेलेगेरे में एक सुन्दर जिनमन्दिर निर्माणकारा कर वैभव-पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा की थी. कहा जाता है कि बल्लाल का उत्तराधिकारी बिट्टिदेव रामानुजाचार्य के उपदेश से नैष्णव धर्मानुयायी हो गया था. परन्तु अंत तक उसे जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा रही. इसके लिये एक-दो नहीं, अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं. बिट्टिवर्धन की पटरानी शांतला आचार्य श्रीप्रभाचन्द्र कीप की शिष्या रही. इसने श्रवणबेल्गोल में 'सवतिगंधवारणबसदि' नामक एक सुन्दर शिलामय जिनालय निर्माण कराकर, उसमें अपने नामानुकुल भगवान् श्री शांतिनाथ की मूर्ति स्थापित की थी. अंत में शांतला ने सल्लेखना-द्वारा अपना शरीर त्याग किया था. होयसल राज्य में एक-दो नहीं, प्रभावशाली अनेक जैन श्रावक उन्नताधिकार में प्रतिष्ठित थे. गंगराज बिट्टिदेव का प्रधानमन्त्री एवं सेना-नायक रहा. यह गंगराज श्रीशुभचन्द्र का शिष्य था. इसने गोविन्दवाडि ग्राम को श्रीगौम्मटेश्वर की सेवा के लिये सादर एवं सहर्ष समर्पित किया था. गंगराज ने चालुक्य नरेश त्रिभुवनमल्ल की प्रबल सेना को वीरता से जीतने के उपलक्ष्य में बिट्टिदेव द्वारा बहुमान में प्राप्त परम ग्राम को मातापोचिकब्बे और पत्नी लक्ष्मी के द्वारा निर्मापित जिनमन्दिर को समर्पित किया था. गंगराज का बड़ा भाई बम्भ भी होय्सल राज्य का सेनापति था. गंगराज ने अपनी पूज्य माता की स्मृति में, श्रवणबेल्गोल में कत्तलेबसदि' के नाम से एक सुन्दर जिनालय निर्माण कराया था. इसकी पत्नी लक्ष्मी के द्वारा भी श्रवणबेल्गोल में 'एरडुकट्टेबसदि' के नाम से एक मनोज्ञ जिनमन्दिर निर्माण हुआ था. इस गंगराज के पुत्र बोप्पण के द्वारा भी श्रवण
Jain Education-latestiana
मायhisonal usenly,
imaniainelibrary.org