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कल्याणविजय गणि : जैन श्रमणसंघ की शासनपद्धति : ५४७
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जैसे प्रान्त के हाकिम देश के हाकिमों के और देश के हाकिम राष्ट्रपति के मातहत होते हैं वैसे ही कुलों के स्थविर गणस्थविरों के और गणों के स्थविर संघस्थविर के मातहत होते थे. कुल-स्थविरों का कार्यप्रदेश संकुचित होता था इसलिए वे अकेले ही अपने कुल की व्यवस्था कर लेते थे, परन्तु गणस्थविरों का कार्यप्रदेश बहुत विस्तृत था. उन्हें अपने-अपने गणों की व्यवस्था तो करनी पड़ती ही थी, साथ ही संघ स्थविर की सभा में हाजिर होकर अथवा प्रतिनिधि भेजकर संघ के कार्य में भी भाग लेना पड़ता था. इस वास्ते गणस्थविर अपने गण की व्यवस्था के लिये एक व्यवस्थापिका सभा स्थापित करते थे जो 'गच्छ' कहलाती थी. इसके निम्नलिखित पाँच सभासद होते थे : १. आचार्य-अथवा प्रमुख. २. उपाध्याय—अथवा उपप्रमुख. ३. प्रवर्तक-अथवा मंत्री. ४. स्थविर-अथवा न्यायाधीश. ५. गणावच्छेदक-अथवा गृहमंत्री. गण-सभा अथवा गच्छ के इन पांच अधिकारियों के जिम्मे क्या-क्या कार्य होते थे इसका निर्देश परिभाषा प्रकरण में कर दिया गया है. गणों का पारस्परिक सम्बन्ध–सभी गण 'संघ' के 'प्रतिनिधि' होते थे यह बात पहले ही कही जा चुकी है, पर इन गणों का पारस्परिक सम्बन्ध कैसा होता था, इस बात का अभी तक विचार नहीं किया. जहां तक हम जानते हैं, महावीर के सभी श्रमणगण आपस में एक दूसरे से सम्बन्धित थे. वन्दन, भोजन, अध्ययन, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखनादि सभी प्रकार के नित्य-नैमित्तिक-क्रिया-व्यवहार एक दूसरे के साथ होते थे और यह रीति आठवें संघस्थविर स्थूलभद्र तक बराबर चलती रही. पर आर्य स्थूलभद्र के शिष्य आर्यमहागिरि और आर्यसुहस्ती के बीच भिक्षाविधि के सम्बन्ध में मतभेद होकर एक बार यह आपसी सम्बन्ध टूट गया था, और तब से अन्य गणों में भी असांभोगिक रीति का प्रचार हुआ. उस समय के बाद समान आचार विचार और क्रिया सामाचारी वाले गण तो एक दूसरे के साथ भोजनादि सामान्य व्यवहार रखते थे. पर जो गण समाचारी में अपने से भिन्नता रखते उनके साथ दैनिक सामान्य व्यवहार नहीं रखते थे. इस प्रकार का संभोग-भोजनादि व्यवहार जिन के साथ होता, वे गण कुल अथवा साधु एक दूसरे के संभोगिक' कहलाते थे ओर शेष 'असांभोगिक.' सांभोगिक गण एकत्र मिलते तब एक परिवार की तरह सब तरह से एक होकर रहते थे. अपने से बड़ों को सब वन्दन करते थे, एक मंडल में बैठकर भोजन करते थे और साथ ही पठन-पाठन तथा प्रतिक्रमणादि क्रियाएं करते थे. पर असांभोगिक गणों के साथ ऐसा नहीं होता था. असांभोगिक गणों के एकत्र मिलने पर साधु एक दूसरे के गणस्थविर को वन्दन मात्र करते थे और वह भी अपने-अपने आचार्यों को पूछने के बाद. हाँ, अस्वस्थ साधु की सेवा करने के सम्बन्ध में यह 'असांभोगिता' की बाड़ किसी को रोक नहीं सकती थी. बल्कि बीमार की सेवा के विषय में तो यहाँ तक नियम बने हुए थे कि बीमार साधु अपने गण का हो चाहे दुसरे गण का उसकी बीमारी की खबर मिलते ही वैयावृत्त्य (सेवा) करने वाले साधुओं को उसकी सेवा भक्ति करने को जाना पड़ता था. गणों के प्रान्तर नियम-गणों के पारस्परिक सम्बन्ध कैसे होते थे, इसका संक्षिप्त परिचय ऊपर दिया गया है. अब हमें यह देखना है कि माण्डलिक-राज्यों की भांति एक दूसरे से सम्बन्धित इन गण-राज्यों के आन्तर नियम अथवा संधि विधान किस प्रकार के होते थे. यों तो गणों के बीच अनेक छोटी-मोटी नियम-मर्यादाएं पाली जाती थीं, पर उन सबका इस लेख में वर्णन करना शक्य नहीं है. यहाँ तो हम उन्हीं स्थूल नियमों का उल्लेख करेंगे जो प्रत्येक गण को बड़ी सावधानी से पालने पड़ते थे. ऐसे नियमों में निम्नलिखित चार नियम मुख्य थे :