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५४२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
शब्द का प्राचीन रूप मालूम होता है. द्रविड़ों का पुराना नाम द्वामिल भी है जो तामिल और मिल्ली का मूलरूप है. इन लोगों की सभ्यता नगर-सभ्यता के रूप में विकसित हुई थी. इनकी प्राचीन सभ्यता के अवशेष दजला-फुरात नदियों की घाटी से सिन्धु घाटी तक मिलते हैं. द्रविड़ लोग व्यापार में समृद्ध थे तथा आदान प्रदान की वस्तुओं का निर्माण करते थे. जौ, गेहूँ और कपास की खेती करते थे, कताई और बुनाई की कला का विकास चरमसीमा पर था. वे हाथी, ऊंट, बैल और भैंस को रखते थे तथा घोड़े पर सवारी करना जानते थे पर वाहन के रूप में घोड़े के रथ की जगह बैलगाड़ी का विशेष प्रयोग करते थे. उपलब्ध मिट्टी के खिलौनों और मूर्तियों से मालूम होता है कि उस समय दुर्गा, शिव और लिंग की पूजा प्रचलित थी, कितनी ही कायोत्सर्ग जैनमूर्तियां भी उस काल की पुरातत्त्व सामग्री से निकली हैं. वे अपने देवता की पूजा, फल-फूल चन्दन आदि से करते थे. बलि नहीं चढ़ाते थे. जबकि आर्य बहुत बड़ी संख्या में आकर पंजाब में व्यवस्थित हो रहे थे. तब द्रविड़ भारत में छोटे बड़े राज्यों में विभक्त थे. आग्नेयों को पराक्रान्त कर इन्होंने मगध और कामरूप में राज्य जमाये तथा दक्षिण में कलिंग, केरल, चोल, और पाण्ड्य देशों में. द्रविड़ों ने बहुत पहले अपने जहाजी बेड़े का विकास किया था तथा दक्षिण भारत, लंका और हिन्द द्विपपुंजों में उपनिवेश स्थापित किये थे. डा० कर्न का कहना है कि सुमात्रा को सबसे पहले उपनिवेश बनाने वाले द्रविड़ ही थे. सिन्धु घाटी की खुदाई से जिस सभ्यता के अवशेष मिले हैं, उसके विधाता द्रविड़ थे—ऐसा विद्वानों का मत है. आर्यों से ठीक पहले की जाति होने से वेदों में इनकी विविध जातियों का उल्लेख मिलता है सो कह चुके हैं. इनसे ही सीधे संघर्ष होने की घटनाएँ वेद और पश्चात् कालीन साहित्य में हैं. आर्यों ने वेदों में दस्यु, अनास, मृध्रवाक्, अयज्वन्, अकर्मन, अन्यव्रत आदि घृणा पूर्ण शब्दों से इन्हीं अनार्यों का उल्लेख किया है. आर्यों ने इनसे पृथक् बने रहने के लिए 'वर्णभेद' बनाया. वैदिक साहित्य सारे भारत के सांस्कृतिक इतिहास का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक देशीय अर्थात् विशेषकर पंजाब, दिल्ली के आसपास का साहित्य है. वह उस याज्ञिक संस्कृति के उपासकों की कृति है जो दूसरी संस्कृति के उत्कर्ष के प्रति अति असहिष्णु थे. उन्होंने भारत के मध्यभाग और पूर्वभाग में प्रचलित अहिंसक संस्कृतिश्रमणसंस्कृति को धक्का दिया. श्रमण और याज्ञिक संस्कृति के संघर्ष के प्रकीर्णक उल्लेख ब्राह्मण और उपनिषद् ग्रन्थों में मिलते हैं. श्रमण-संस्कृति के सूचक अर्हन्, श्रमण, यतयः, मुनयः वातरसनाः व्रात्य, महावात्य आदि शब्द वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं. श्रमणों के प्रतिनिधि ऋषभदेव, अजितनाथ, अरिष्टनेमि का उल्लेख भी वेदों में मिलता है. अथर्ववेद के १५ वें अध्याय में व्रात्यों का विशेष वर्णन आया है. सामवेद और कुछ श्रौतसूत्रों में व्रात्यस्तोमविधि द्वारा उन्हें शुद्ध कर वैदिक परम्परा में सम्मिलित करने का भी वर्णन है. व्रात्य लोगों की संस्कृति व्रतमूलक थी. ये यज्ञमूलक संस्कृति के परम विरोधी थे. मनुस्मृति के दसवें अध्याय में लिच्छवि, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रिय जातियों को व्रात्यों में गिनाया है. इन का दर्शन समत्व या श्रम-तपस्या, कायक्लेश आदि कर्म-क्षय करने पर आश्रित था. मालूम होता है कि इस श्रमण-संस्कृति के उपासकजन आर्यों के आगमन के पूर्व के द्रविड़ जाति या उसके पूर्व जाति वंशधर लोग रहे होंगे, जिनकी पूजा उपासना, दार्शनिक मान्यता, कर्मसिद्धान्त, पुनर्जन्म, आत्मा की पर्याय होना, सभ्यता के अन्य अंग श्रमण-संस्कृति के प्राक्तन रूप ही हैं. यह संस्कृति चारों तरफ भारत में फैली थी. तामिल भाषा के प्राचीन से प्राचीन साहित्य इससे प्रभावित थे. अब तक उस संस्कृति की परिचायक पुरातत्त्वादि सामग्री का ठीकठीक अनुसंधान नहीं हुआ है. सिन्धु घाटी की खुदाई से जो कुछ प्रकाश पड़ा है तथा गंगाघाटी की खुदाई से जो प्रकाश पड़ने की संभावना है ये दोनों अवश्य ही आग्नेय, द्रविड़ आदि द्वारा उपास्य श्रमण-संस्कृति पर प्रकाश डालेंगे.
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