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डा० मंगलदेव शास्त्री : भारतीय संस्कृति का वास्तविक दृष्टिकोण : ५३३ यह प्रगतिशीलता या परिवर्तनशीलता का सिद्धांत केवल हमारी कल्पना नहीं है हमारे धर्मशास्त्रों ने भी इसको मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है. धर्मशास्त्रों का कलि-वयं प्रकरण' प्रसिद्ध है. इसमें प्राचीन काल में किसी समय प्रचलित गोमेध, अश्वमेध, नियोगप्रथा आदि का कलयुग में निषेध किया गया है. विभिन्न परिस्थितियों के कारण भारतीय संस्कृति के स्वरूप में प्रगति या परिवर्तन होते रहे हैं इस बात का, हमारे धर्मशास्त्रों के ही शब्दों में, इससे अधिक स्पष्ट प्रमाण मिलना कठिन होगा. इसके अतिरिक्त, प्रत्येक युग में उसकी आवश्यकता के अनुसार 'धर्म' का परिवर्तन होता रहता है, इस सामान्य सिद्धांत का प्रतिपादन भी धर्मशास्त्रों में स्पकृत: मिलता है. उदाहरणार्थ :
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापर युगे । अन्ये कलियुगे नृणां युगरूपानुसारतः । युगेष्वावर्तमानेषु धर्मोऽप्यावर्तते पुनः । धर्मव्वावर्तमानेषु लोकोऽप्यावर्तते पुनः । श्रुतिश्च शौचमाचारः प्रतिकालं विभिद्यते ।
नाना धर्माः प्रवर्तन्ते मानवानां युगे-युगे । अर्थात्, सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग में युग के रूप या परिस्थिति के अनुसार 'धर्म' का परिवर्तन होता रहता है. युग-युग में मनुष्यों की श्रुति (धार्मिक मान्यता की पुस्तक या साहित्य), शौच (स्वच्छता का स्वरूप और प्रकार)
और आचार (आचार-विचार या व्यवहार) सामयिक आवश्यकताओं के अनुसार बदलते रहते हैं. धर्मशास्त्रों की ऐसी स्पष्ट घोषणा के होने पर भी, यह आश्चर्य की बात है कि हमारे प्राचीन धर्मशास्त्री विद्वानों के भी मन में 'भारतीय संस्कृति स्थितिशील है' यह धारणा बैठी हुई है. गांधी-युग से पहले के सांप्रदायिक विद्वानों के शास्त्रार्थ अब भी लोगों को स्मरण होंगे. उनमें यही निरर्थक तथा उपहासास्पद झगड़ा रहता था कि हमारा सिद्धांत सनातन है या तुम्हारा. अब भी यह धारणा हमारे देश में काफी घर किये हुए है. इसी के कारण सांप्रदायिक कटु भावना तथा संकीर्ण विचार-धारा अब भी हमारे देश में सिर उठाने को और हमारे सामाजिक जीवन को विषाक्त करने को सदा तैयार रहती है. इसलिए भारतीय संस्कृति की सबसे पहली मौलिक आवश्यकता यह है कि उसको हम स्वभावतः प्रगतिशील घोषित करें. उसी दशा में भारतीय संस्कृति अपनी प्राचीन परम्परा, प्राचीन साहित्य और इतिहास का उचित सम्मान तथा गर्व करते हए अपने अन्तरात्मा की संदेश-रूपी मानव-कल्याण की सच्ची भावना से आगे बढ़ती हुई, वर्तमान प्रबुद्ध भारत के ही लिए नहीं, अपितु संसार भर के लिए उन्नति और शान्ति के मार्ग को दिखाने में सहायक हो सकती है. यह कार्य 'हमारा आदर्श या लक्ष्य भविष्य में है, पश्चाद्दशिता में नहीं' यही मानने से हो सकता है. भारतीय संस्कृति रूपी गंगा की धारा सदा आगे ही बढ़ती जाएगी, पीछे नहीं लोटेगी. प्राचीन युग जैसा भी रहा हो, पुनः उसी रूप में लौट कर नहीं आ सकता, हमारा कल्याण हमारे भविष्य के निर्माण में निहित है, हम उसके निर्माण में अपनी प्राचीन जातीय संपत्ति के साथ-साथ नवीन जगत् में प्राप्य संपत्ति का भी उपयोग करेंगे. यही भारतीय संस्कृति की प्रगतिशीलता के सिद्धान्त का रहस्य और हृदय है. भारतीय संस्कृति का दूसरा सिद्धांत उसका असाम्प्रदायिक होना है. यहाँ हम उसी की व्याख्या करेंगे:
१. देखिए-'अथ कलिवानि. बृहन्नारदीये-समुद्रयातुः स्वीकारः कमण्डलुविधारणम् । “देवराच्च सुतोत्पत्तिमधुपर्के च गोर्वधः । मांसदानं तथा श्राद्धे वानप्रस्थाश्रमस्तथा । "नरमेधाश्वमेधको । गोमेवश्च तथा मखः । इमान् धर्मान् कलियुगे वानाहुर्मनीषिणः ॥ 'इत्यादि -निर्णयसिन्धु, कलिवयंप्रकगरण.
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