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वासुदेवशरण अग्रवाल : पुरुष प्रजापति : १२५
सर्वथा अव्यक्त और अमूर्त है, किन्तु जिसकी स्वाभाविकी ज्ञान, बल, क्रिया से यह सारा विश्व प्रवृत्त हो रहा है. इस प्रकार त्रिपुरुष समन्वित परात्पर पुरुष ही षोडशी प्रजापति का दूसरा नाम है. इन्हीं तीनों की विशेषताओं को
और भी अनेक शब्दों द्वारा प्रकट किया जाता है, क्योंकि विश्व में भी वस्तुतः वे तीन ही नानाभावों को प्राप्त हो रहे हैं. उदाहरण के लिए अव्यय, क्षर का ही विकास मन, प्राण और भूत है. उन्हें ही जैसा पहले कहा गया हैप्रज्ञानात्मक, प्राणात्मा और भूतात्मा कहते हैं. इन्हीं तीनों से क्रमशः भावसृष्टि और विकारसष्टि का जन्म होता है. इन तीनों में से प्रत्येक की पांच-पांच कलाएं हैं अर्थात् अव्यय की पांच कलाएँ, अक्षर की पांच कलाएं और क्षर की पांच कलाएं और इनसे अतिरिक्त स्वयं परात्पर पुरुष-इस प्रकार षोडशी प्रजापति कहलाता है. कहा है :
पंचधा त्रीणि त्रीणि तेभ्यो न ज्यायः परमदन्यदस्ति, यस्तद् वेद स वेद सर्व सर्वा दिशो बलिमस्मै हरन्ति । क्षर, अक्षर और अव्यय इन तीनों में शुद्ध आत्मा केवल अव्यय है. वह प्रकृति सापेक्षता से ऊपर है. प्रकृति के दो रूप हैं-अव्यक्त और व्यक्त. व्यक्त रूप विश्व या क्षर है. प्रकृति का अव्यक्त रूप अक्षर पुरुष कहा जाता है. उसे ही वराप्रकृति कहते हैं. उसकी तुलना में क्षर सृष्टि अपरा प्रकृति है. जो क्षर सृष्टि है वही भौतिक जगत् है. भूत प्रजाधार पर प्रतिष्ठित रहता है. प्राण के विना भूत की स्थिति हो ही नहीं सकती. प्राचीन और अर्वाचीन दोनों दृट्टियों से यही सत्य सिद्धान्त है. प्रत्येक भूत या पिण्डात्मक अर्थ प्राणरूप शक्ति का ही व्यक्त रूप है. भूत और प्राण इन दोनों से ऊपर इनके भीतर समाविष्ट अव्यय पुरुष है, जो विश्वसाक्षी, असंग और अव्यक्त रूप है. वैदिक परिभाषाओं से प्रायः परिचय न होने के कारण उनके सान्निध्य में बुद्धि को व्यामोह होने लगता है. किन्तु जिस प्रकार विज्ञान की परिभाषाएं सुनिश्चित और सार्थक हैं, उसी प्रकार वैदिक सृष्टिविज्ञान ने भी अपने अभिधेय अर्थ का प्रकाश करने के लिये सुनिश्चित परिभाषाशास्त्र का निर्माण किया था. उन पारिभाषिक शब्दों के द्वारा ही मन्त्रों में, ब्राह्मणों में और उपनिषदों में सृष्टि सम्बन्धी नाना तत्वों को स्पष्ट किया गया है. दुर्भाग्य से उस परम्परा से हम दूर हटते चले गए और ब्राह्मणग्रन्थों का पठनपाठन भी केवल यज्ञीय कर्मकाण्डों तक सीमित रह गया. वैसे तो ऋषियों की दृष्टि से उन्होंने ब्राह्मणग्रन्यों में प्रायः इन अर्थों को आद्यन्त भर दिया है, किन्तु वे स्रोतप्रन्थ भी आज दुरूह बने हुए हैं. प्रजापति को चतुष्पात् कहा गया है. ओंकार सर्वोत्तम गुह्य संकेत है, प्रणव भी चतुष्पात् है और प्रजापति की प्रतिमा मानव भी चतुष्पात् है. विश्व, विश्वकर्ता, विश्वसाक्षी, विश्वातीत इन चारों की ही संज्ञा क्षरात्मा, अक्षरात्मा, अव्ययात्मा और परात्पर है और इन्हें ही म, उ, अ एवं अर्धमात्रा युक्त प्रणव के प्रतीक से किया जाता है. 'विश्व क्या है? यहां से प्रश्नसूत्र का वितान करते हुए समष्टि और व्यष्टि रूप में पांच भौतिक विश्व के मूलकारण की जिज्ञासा और उसका समाधान किया गया है. इसके उत्तर में उपनिषदों की प्रसिद्ध अश्वत्थविद्या का निरूपण है जो वैदिक सृष्टिविद्या का ही दूसरा नाम है. इस प्रसंग में कई प्राचीन परिभाषाएं महत्त्वपूर्ण हैं. जैसे महावनर्ण, परात्पर, अश्वत्थरूपी महावृक्ष अव्यय, इसे मायी महेश्वर भी कहते हैं. इस अश्वत्थविद्या में अव्यय को अमृत, अक्षर को ब्रह्म और क्षर को शुक्र भी कहा गया है. अव्यय अभिष्ठानकारण और भाव सृष्टि का हेतु है, अक्षर निमित्त कारण और गुणसृष्टि का हेतु है, एवं क्षर उपादानकारण तथा विकारसृष्टि का हेतु है.
मनुतत्त्व अश्वत्थविद्या के अतिरिक्त दूसरा महत्त्वपूर्ण विषय मनुतत्त्व की व्याख्या है, जिसके कारण मानव मानव कहलाता है. मनुतत्त्व को ही अग्नि, प्रजापति, इन्द्र, प्राण और शाश्वतब्रह्म इन नामों से पुकारा जाता है, जैसा कि मनु के श्लोक में प्रसिद्ध है, (मनुः १२।१२३). अध्यात्मसंस्था के अन्तर्गत चार प्रकार के मनस्तन्त्र हैं-श्वोवसीयस् मन, सत्त्वमन, सर्वेन्द्रियमन
और इन्द्रिय मन. ज्ञानशक्तिमय तत्त्व को मन कहते हैं. इन चारों का सम्बन्ध चिदंश से है. उसी के कारण ये प्रज्ञात्मक बनते हैं. इनमें सृष्टि की जो मूलभूत कामना या काम है (कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्) वही सर्वजगत् के मूल में स्थित अतएव पुरुष के मूल में भी सर्वोपरि विराजमान हृदय विश्वात्मा मन या हृदयभाव से युक्त
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