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मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : २७
नौ:
मरुभूमि के आराध्य गुरुदेव, अत्यंत संवेदनशील और अनुभूति-प्रवण थे. सं० १९६६ में भयंकर दुष्काल था. स्वामीजी ने अपने साथी मुनियों को किसी प्रकार जताये बिना ही एक दिन यह घोषित कर दियाः "देश में दुष्काल है ! मैं घृत, दुग्ध-दधि और नवनीत का उपयोग करता रहूँ-यह नहीं हो सकता ! आजसे मेरे लिए ये वस्तुएं तब तक मत लाना, जब तक सुकाल न हो जाय ! साथी मुनियों के हृदय को मुनिराज के विचारों ने स्पर्श किया ! उन्होंने भी मुनि-प्रधान का पथ अनुसरा ! घटना स० : १६६६.
दस :
स्वामीजी म० के गुरुदेव श्रीजोरावरमलजी म० को लम्बे समय से उदर-सम्बन्धी पीड़ा थी. 'पीड़ा है तो है, यह कर्मफल है. इससे छूटने का उपाय क्यों किया जाय ? कुछ ऐसे व्यर्थ के आदर्शवादी भी होते हैं. कुचेरा निवासी श्रीहंसराजजी भण्डारी उपचार-व्यवस्था के पक्ष में नहीं थे. स्वामीजी से उन्होंने कहा : "कर्म-फल को डाक्टर मिटा सकते हैं क्या ? क्यों व्यर्थ औषधोपचार करते हो ?' भण्डारीजी का कथन उनकी गुरुभक्ति को चुनौती थी. उन्होंने भण्डारीजी से कहा : 'हमारी व्यवस्था में आपको हस्तक्षेप करने की क्या आवश्यकता है ?' स्वामीजी द्वारा दिये गये सटीक उत्तर ने जैसे करंट का काम किया हो, अगले दिन से उन्होंने स्थानक में जाना स्थगित कर दिया. तीन समय उपाश्रय आने वाले भण्डारीजी जब दो समय उपाश्रय में नहीं आए, तो स्वामी का मन यों मुड़ा : 'मालूम होता है, मेरी बात उन्हें खल गई है.' स्वामी म० तत्काल उक्त सज्जन के घर गए और क्षमायाचना की. गणधर गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर के समय आनन्द श्रावक के घर जाकर अपनी भूल की क्षमा-याचना की थी. स्वामीजी महाराज ने भी भण्डारीजी के घर जाकर क्षमा-याचना की.
ग्यारह:
घटना : संवत् १९८५ कुचेरा. आचार्य श्री रघुनाथजी म० की सम्प्रदाय की पंरपरा के विद्वान् सन्त श्रीसन्तोषचन्द्रजी म०, पूज्य गुरुदेव श्रीजोरावरमलजी म०, श्री संतोषचद्रजी म. के शिष्य श्री मोतीलालजी म०,श्री जोरावरमलजी के शिष्य स्वामीजी म० आदि सन्त सावलिया (जवाली राजस्थान) से विहार करते हुए रानी (राजस्थान) से पहले, अंजनेश्वर महादेव (वैष्णवसम्प्रदाय का प्रसिद्ध तीर्थस्थान) पहुँचने वाले थे. साथ के सभी मुनिजन आगे निकल गये थे. स्वामीजी म० और श्री मोतीलालजी म० पीछे रह गये थे. सहसा श्रीमोतीलालजी म० का ध्यान गया. देखा कि एक व्याघ्र आ रहा है ! मोतीलालजी मुनि भयभीत हो उठे. मुनिश्री ने कहा : 'अहिंसा-व्रती को भयानुभव करने की क्या आवश्यकता है? अहिंसक को तो निर्भय और वीर होना चाहिये. भय तो वह खाए जो दूसरों को भय पहुंचाता हो. यदि ऐसे प्रसंगों पर अहिंसाव्रती ही डरने लगेंगे तो लोकमानस के धरातल पर अहिंसा का अर्थ कायरता है -यह गलत विश्वास, और गहराई से उभर आएगा. आत्मा के अहिंसास्त्र पर विश्वास लाकर ध्यानावस्थित हो जाओ. साधु का आदर्श तो 'अर्घावतारण असिप्रहारण में सदा समता धरन' होना चाहिये. दोनों मुनि अर्ध-निमीलित नेत्रों से ध्यानावस्थित हो गये. व्याघ्र आया. जैसे उसके मन में किसी प्रकार का भावोद्गम ही न हुआ हो-वह मुनियुगल से दो फुट की दूरी पर आकर एक निमिष को रुका और चला गया. घटना : सं० १६६६, स्थान जंगल. (मुनि रूपचन्द्र 'रजत'की गुरुमुखश्रुति)
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