________________
रमेश उपाध्यायः सत्यं शिवं सुन्दरम् : ३६७
0-0--0-0-0--0-0--0--0-0
कृतिकार की सत्य के प्रति उसकी निजी पहुँच (Approach) की प्रक्रिया को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है. अन्यथा कृति और और कृतिकार के प्रति अन्याय हो जाता है. परन्तु साहित्यिक कृति का सच होना ही उसकी पूर्णता नहीं है. केवल यथार्थ पर दृष्टि रखने वाला कृतिकार या विचारक सत्य का सही सर्जक नहीं हो सकता. कारण, कोरा सच मनुष्य को कोई दिशा दे सकता है न आनन्द. यही कारण है कि जहां सत्य है वहां शिव और सुन्दर का होना भी अनिवार्य है. 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के तीनों शब्द अन्योन्याश्रित एवं एक सहज संगीत में बंधे हैं. जहां सत्य है, वहां शिव और सौन्दर्य का होना अनिवार्य है. शिव अर्थात् कल्याणकर होने के लिये सत्य और सुन्दर होना अपेक्षित ही है और सुन्दर तो कुछ हो ही नहीं सकता जो सत्य और शिव न हो. इन तीनों शब्दों के क्रमागत रूप का भी एक निश्चित उद्देश्य है. यह क्रम तीनों की क्रमागत वशिष्टता एवं गुरुता को प्रदर्शित करता है. तीनों की श्रेष्ठता में भी सत्य श्रेष्ठतम, शिव श्रेष्ठतर एवं सुन्दर श्रेष्ठ है परन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि तीनों में किसी की महत्ता कम है. तीनों की क्रमागत गुरुता स्वीकार न भी करें, किन्तु पारस्परिक सापेक्षता से तो इंकार किया ही नहीं जा सकता. मानवता के आध्यात्मिक, भौतिक एवं काल्पनिक जगत्-रूपों में 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का क्रमिक रूप देखा जाय तब भी अच्छे परिणामों पर पहुंचा जा सकता है. सत्य तो आध्यात्मिक है ही क्योंकि दर्शन के समस्त प्रश्न सत्यासत्य विवेक की जिज्ञासा लिये हुए होते हैं. 'शिव' के अन्तर्गत संसार के लिये जो कुछ हितकर हैं, उपादेय है, वह सब आ जाता है. हितकर और उपादेय चाहे वस्तु हो या कार्य तथा विचार. मानवता के कल्याण के लिये जो हितकर एवं उपादेय है, उसके निर्माण, संवर्द्धन एवं संरक्षण के समस्त प्रयत्न 'शिव' से ही प्रेरित होते हैं. और 'सुन्दरम्' मानव-कल्पना के आनन्ददायक स्वरूप का संकेत है. किसी वस्तु विशेष का अपना सौन्दर्य असौन्दर्य कुछ भी नहीं है. वस्तु को सुन्दर-असुन्दर बनाने वाला हमारा मन है, हमारी कल्पना है. अपने मानसिक सौंदर्य के कारण ही हम फूलों को हँसता देख सकते हैं, घटाओं को आँसू बहाते हुए महसूस कर सकते हैं. जिनके काले रंग और मोटे होठों को देखकर हम नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं उनमें भी अफ्रीका-निवासी परम-सौन्दर्य की कल्पना करते हैं. अत: 'सुन्दरम्' हुआ मनुष्य के मानसिक जगत् का प्रतीक है. भौतिक जगत् में हमें सभ्यताओं के विकास और ह्रास मिलते हैं. अपनी भौतिकता में मनुष्य अध्यात्म और कल्पना दोनों से आक्रांत रहता है. प्रगति के लिये संकेत मिलते हैं कल्पना से और प्रगति की दिशा निर्धारित करने के लिये अध्यात्म का अंकुश काम आता है. फिर भी जब संस्कृतियां गलत मोड़ ले लेती हैं और दर्शन एवं कल्पना दोनों विकृत होने लगते हैं, तब 'शिव' की उपादेयता को महत्त्व देने वाली प्रवृत्ति दोनों में या दोनों में से एक में क्रांति ले आती है. उस क्रांति द्वारा 'शिव' को सत्य और सुन्दर बनाने की प्रेरणा स्वतः ही प्राप्त हो जाती है. जब मनुष्य भौतिकता को ही सब कुछ मान लेता है और अध्यात्म एवं कल्पना से पीछा छुड़ा लेना चाहता है तो वह अवनति की ओर जाने लगता है. अतः उसे कहीं न कहीं आध्यात्मिक दर्शन की ओर झुकना ही पड़ता है. 'आत्मज्ञं हार्ययेद् भूतिकामः' में भी यही भावना परिलक्षित होती है. आदर्शवाद और भौतिकवाद को देखते समय भौतिकवाद हमें अधिक आकर्षित करता है. साहित्यिक रचनाओं में भी हम देखते हैं कि आदर्शवादी विचार हमें उतना प्रभावित नहीं करते जितना भौतिक जगत् के नग्न यथार्थ को चित्रित करने वाले विचार करते हैं. वैसे साहित्यिक क्षेत्र में नितान्त यथार्थ अथवा कोरे आदर्श को प्रस्तुत करने वाली रचनाओं को खोज पाना असम्भव ही है क्योंकि बिल्कुल यथार्थ लगने वाला विचार भी कहीं बहुत गहरेपन में आदर्श से प्रभावित होता है और आदर्श की तो विवशता है कि उसे यथार्थ के पांवों पर खड़ा होना पड़ता है. विश्व की राजनीतिक एवं सामाजिक विचारधाराओं पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' को लेकर न चलने वाली धाराएं असमय ही उपेक्षा के मरुस्थल में खो गयीं. जबतक उनके प्रवर्तक या कुछ दृढ़े अनुयायी रहे तब तक वे अपने विचारों को सत्य मानकर सुदृढ़ आस्था के स्तम्भों पर उनका भार ढोते रहे किन्तु सत्य, शिव और सुन्दर
SCRET
Anals Only
TRAVdoray.org