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४६२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय सल्लेखना के भेद जैन शास्त्रों में शरीर का त्याग तीन तरह से बताया गया है' १. च्युत, २. च्यावित और ३. त्यक्त. १. च्युतः---स्वतः आयु पूर्ण होने पर शरीर छूटता है वह च्युत कहलाता है. २. च्यावितः-जो विष-भक्षण, रक्तक्षय, धातुक्षय, शस्त्राघात, संक्लेश, अग्निदाह, जलप्रवेश आदि निमित्त कारणों से शरीर छोड़ा जाता है वह च्यावित कहा गया है. ३. त्यक्तः—जो रोगादि हो जाने और उनकी असाध्यता एवं मरणान्त होने पर विवेक सहित संन्यास रूप परिणामों से शरीर छोड़ा जाता है वह त्यक्त है. तीन तरह के शरीरत्यागों में त्यक्त-शरीरत्याग सर्वश्रेष्ठ और उत्तम माना गया है, क्योंकि त्यक्त अवस्था में आत्मा पूर्णतया जागृत एवं सावधान रहता है तथा उसे कोई संक्लेश परिणाम नहीं होता. इस त्यक्त शरीरत्याग को ही समाधिमरण, संन्यासमरण, पण्डितमरण, वीरमरण और सल्लेखनामरण कहा गया है. यह सल्लेखनामरण (त्यक्त शरीरत्याग) तीन प्रकार का प्रतिपादन किया है:२१. भक्तप्रत्याख्यान, २. इंगिनीमरण और ३. प्रायोपगमन. १. भक्त्तप्रत्याख्यान-जिसमें अन्न-पान का क्रमशः अभ्यास पूर्वक त्याग किया जाता है उसे भक्तप्रत्याख्यान या भक्तप्रतिज्ञा सल्लेखना कहते हैं. इसका काल-प्रमाण कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त है और अधिक-से-अधिक १२ वर्ष है. मध्यम, अन्तर्मुहुर्त से ऊपर और बारह वर्ष से नीचे का काल है. इसमें आराधक आत्मातिरिक्त समस्त परवस्तुओं से रागद्वेषादि छोड़ता है तथा अपने शरीर की टहल स्वयं भी करता है और दूसरों से भी कराता है. २. इंगिनीमरण -- में क्षपक अपने शरीर की सेवा-परिचर्या स्वयं तो करता है, पर दूसरे से नहीं कराता. स्वयं उठेगा और स्वयं लेटेगा और इस तरह अपनी सम्पूर्ण क्रियाएँ स्वयं करेगा. वह पूर्णतया स्वावलम्बन का आश्रय ले लेता है. ३. प्रायोपगमन में वह न अपनी सहायता लेता है और न दूसरे की. आत्मा की ओर ही उसका सतत लक्ष्य रहता है और उसी के ध्यान में सदा रत रहता है. इस सल्लेखना को साधक तब ही धारण करता है जब बह अन्तिम अवस्था में पहुँच जाता है तथा जिसका संहनन प्रबल होता है. इनमें भक्तप्रत्याख्यान दो तरह का है-१. सविचार भक्तप्रत्याख्यान और २. अविचार भक्तप्रत्याख्यान. सविचार भक्तप्रत्याख्यान में आराधक अपने संघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करता है. यह सल्लेखना बहुत काल बाद मरण होने तथा शीघ्र मरण न होने की हालत में ग्रहण की जाती है. इस सल्लेखना का धारी 'अर्ह' आदि अधिकारों के विचार पूर्वक उत्साह सहित इसे धारण करता है. इसी से इसे सविचार भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना. कहते हैं. पर जिस आराधक की आयु अधिक नहीं है और शीघ्र मरण होने वाला है तथा अब दूसरे संघ में जाने का समय नहीं है और न शक्ति है, वह मुनि अविचार भक्तप्रत्याख्यान समाधिमरण धारण करता है. इसके भी तीन भेद है. १. निरुद्ध, २. निरुद्धतर और ३. परमनिरुद्ध. १. निरुद्धः-दूसरे संघ में जाने की पैरों में सामर्थ्य न रहे, शरीर थक जाय अथवा घातक रोग, व्याधि या उपसर्गादि आजायें और अपने संघ में ही रुक जाय तो उस हालत में मुनि इस समाधिमरण को ग्रहण करता है. इसलिए इसे निरुद्ध
१. देखिये, नेमिचन्द्राचार्य, गोम्मटसार कर्मकाण्ड ५६, ५७, ५८. २. देखिये, नेमिचन्द्राचार्य -गो० कर्म० गा०५१ तथा भग० आरा० गा० २६. ३. देखिये नेमिचन्द्राचार्य -गो० कर्म० गा०६१. ४. देखिये, नेमिचन्द्राचार्य -गो० कर्म गा० ६१. श्वेताम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में इसे 'पादपोपगमन' या 'पादोपगमन' कहते हैं,
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