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दरबारीलाल जैन : जैनदर्शन में संलेखना का महत्वपूर्ण स्थान : ४५१
शान्ति के साथ आत्मानुभव करते हुए समाधिपूर्वक मरण करना है. इसके विना उनका कोई फल नहीं है केवल शरीर को सुखाना या ख्यातिलाभ करना है.'
विक्रम की दूसरी शताब्दी के विद्वान् स्वामी समतंभद्र की मान्यतानुसार जीवन में आचरित अनशनादिक विविध तणे का फल अन्त समय में गृहीत सल्लेखना है. अतः अपनी पूरी शक्ति के साथ समाधिपूर्वक मरण के लिए प्रयत्न करना चाहिए. आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि भी सल्लेखना के महत्त्व और आवश्यकता को बतलाते हुए लिखते हैं कि मरण किसी को इष्ट नहीं है. जैसे अनेक प्रकार के सोने, चांदी, बहुमूल्य वस्त्रों आदि का व्यापार करने वाले किसी भी व्यापारी को अपने घर का विनाश कभी भी इष्ट नहीं हो सकता. यदि कदाचित् उसके विनाश का कोई (अग्नि, बाढ़, राज्यविप्लव आदि) कारण उपस्थित हो जाय तो वह उसकी रक्षा करने का पूरा उपाय करता है और जब रक्षा का उपाय सफल होता हुआ नहीं देखता तो घर में रखे हुए उन सोना, चांदी आदि बहुमूल्य पदार्थों को जैसे-बने-वैसे बचाता है तथा घर को नष्ट होने देता है. उसी तरह व्रतशीलादि गुणरत्नों का संचय करने वाला व्रती-मुमुक्षु गृहस्थ अथवा साधु भी उन व्रतादि गुणरत्नों के आधारभूत शरीर की प्राणप्रण से सदा रक्षा करता है उसका विनाश उसे इष्ट नहीं होता. यदि कदाचित् शरीर में रोगादि विनाश का कारण उपस्थित हो जाये तो उनका वह पूरी शान्ति के साथ परिहार करता है. लेकिन जब असाध्य रोग, अशक्य उपद्रव आदि की स्थिति देखता है और शरीर का बचना असम्भव समझता है तो आत्मगुणों की रक्षा करता है तथा शरीर को नष्ट होने देता है.” । इन उल्लेखों से सल्लेखना के महत्त्व और उसकी आवश्यकता पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है. यही कारण है कि जैनसंस्कृति में सल्लेखना पर बड़ा बल दिया गया है. जैन लेखकों ने अकेले इसी विषय पर अनेकों स्वतंत्र ग्रंथ लिखे है. आचार्य शिवार्य की 'भगवती आराधना' इसी विषय का एक अत्यन्त प्राचीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है. इसी प्रकार मृत्युमहोत्सव' आदि वृत्तियाँ भी लिखी गई हैं, जो इस विषय पर बहुत अच्छा प्रकाश डालती हैं.
सल्लेखना का प्रयोजन, काल और विधि यद्यपि ऊपर के विवेचन से सल्लेखना का प्रयोजन और काल ज्ञात हो जाता है फिर भी नीचे उसे और भी अधिक स्पष्ट किया जाता है. स्वामी समन्तभद्र ने सल्लेखना-धारण की स्थिति और उसका स्वरूप निम्न प्रकार प्रतिपादित किया है'जिसका उपाय न हो, ऐसे किसी भयंकर सिंह आदि क्रूर वन्यजन्तुओं द्वारा खाये जाने आदि के उपसर्ग आजाने पर, जिसमें शुद्ध भोजन-सामग्री न मिल सके ऐसे दुर्भिक्ष के पड़ने पर, जिसमें धार्मिक एवं शारीरिक क्रियायें यथोचित रीति से न पल सकें ऐसे बुढ़ापे के आजाने पर तथा किसी असाध्य रोग के हो जाने पर धर्म की रक्षार्थ शरीर के त्याग करने को 'सल्लेखना' कहा गया है.'
१. तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च ।
पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना |-शान्ति सो० मृत्युमहो० श्लोक २३. २. अन्तःक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते ।
तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितच्यम् |-समन्तभद्र-रत्नकरण्ड श्रा०५-२. ३. "मरणस्यानिष्टत्वात् . यथा वणिजो विविधपण्यदानादानसंचयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्टः. तद्विनाशकारणे च कुतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति
परिहरति, दुःपरिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते. एवं गृहत्थोऽपि ब्राशीलपण्यसंचये प्रवमानस्तदाश्रयस्य न पात्तमभिवांछति. तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते रवगुणानिधेिन परिहरति. दुःपरिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतते."
-सर्वार्थ सि०७-२२. ४. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः । -समन्तभद्र-रत्नकरण्ड श्रा० ५-१.
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