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२० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय स्वामीजी सोचा करते थे: 'हर साल जैसे बच्चा पैदा करने वाली स्त्री संतान की फौज तो खड़ी कर देती है, परन्तु किस में शक्ति का संचार हो रहा है, कौन योग्य बन रहा है-इस ओर वह बहुत कम जाती है, अतः संतान की फौज खड़ी करने से कोई लाभ नहीं, जब तक संतान की समुचित युगानुकूल शिक्षा-दीक्षा की एवं संपोषण की सुव्यवस्था न की जाए. ऐसी अवस्था में वह फौज ही उसे नोचना शुरू कर देगी. फलस्वरूप तन और मन दोनों ही की शान्ति भंग हो जायगी. बहुत-सी संस्थाओं का जन्म भी ऐसा ही अल्प-स्थायी होता है.. स्वामीजी म. जो कहते, वही समय आने पर करते थे. पर जो करते उसकी नींव अत्यन्त गहरी रखते थे. किसी की देखा-देखी एक कदम भी यहाँ से वहाँ रखना उन्हें इष्ट न था. स्वामीजी म. नूतन पीढ़ी को सुशिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कार देने के प्रबल समर्थक थे शिक्षा के साथ यदि संस्कार न आया तो शिक्षा को वे त्रुटिपूर्ण मानते थे. सामूहिक रूप में सुसंस्कार प्रदान करने की योजना तभी सफल हो सकती है जब बालकों को धर्ममय वातावरण में रहने का अवसर दिया जाय. इस हेतु स्वामीजी ने मेड़ता में प्रभावशाली प्रवचन किए. बात लोगों के गले उतरी. मेड़ता संघ ने समय आने पर भक्ति-साधिका मीराबाई की जन्मभूमि मेड़ता में अपने आदि गुरु (जिनके नाम से सम्प्रदाय का नामकरण हुआ) को संस्मृति को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से 'आचार्य जयमल जैन छात्रावास' की स्थापना का निश्चय किया. जागरण आया. छात्रावास स्थापित हुआ. आज भी उस छात्रावास में विद्यार्थी अपने भावी जीवन का निर्माण जैन संस्कारों में जीकर करते हैं. जिनके नामपर छात्रावास का नामकरण हुआ है, वे पूज्य पुरुष एक जैन में जिन-जिन विशेषताओं के दर्शन किया करते थे. वे सब बातें छात्रावासीय बच्चों के जीवन-व्यवहार, रहन-सहन, बोलचाल आदि से प्रतिबिम्बित हों—ऐसा प्रयत्न जारी है. संस्था अपने आदर्श की ओर अभिमुख होती हुई आज भी सुन्दर पद्धति से चल रही है.
हृदय-परिवर्तन : द्यूत-कर्म भारत में प्राचीनकाल से प्रचलित रहा है. चूत-कर्म की अवहेलना भी तभी से सन्तों, महात्माओं और ऋषियों, मुनियों व धर्म ग्रंथों के द्वारा होती आ रही है. द्यूत कर्म मनुष्य की बिना श्रम के धनोपार्जन करने की आलस्यपूर्ण मनोवृत्ति का सूचक है. अतीत की ओर उद्ग्रीव होकर देखिए. सती द्रौपदी का दुर्योधन द्वारा पुरुष-समूह में चीर-हरण का घृणित कार्य जुवे का ही कुफल था. राजा नल के लिए एक समय ऐसा था कि वह अपनी संगिनी को एक पल भी आँखों से ओझल नहीं कर सकता था. इस कर्मका चस्का ऐसा पड़ा कि वह चारों ओर से निराश हो गया और उस स्थिति तक पहुँच गया जहाँ उसे अपनी जीवन-संगिनी को निस्सहाय और निराधार अवस्था में सुनसान जंगल में छोड़ देना पड़ा. एक कवि ने द्यूत कर्म में फँसे मनुष्य की मनोवृत्ति का कितना सुन्दर चित्रण किया है !
ना मुरीद इस खेल को जीत भली न हार,
जीते तो चस्का पड़े हारे लेत उधार । इसीलिये जैनाचार की प्राथमिक भूमिका प्राप्त करने के लिए जैनाचार्यों ने सात कुव्यसनों का परित्याग करना अनिवार्य माना है. सात दुर्व्यसनों का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए सर्वप्रथम द्यूत-कर्म परित्याग का उपदेश दिया. स्वामी श्रीहजारीमलजी महाराज के जीवन में एक जुवारी से वार्तालाप का प्रसंग किस प्रकार एक जुवारी के जीवन में एक नया मोड़ लाता है और उसके जीवन की किस प्रकार दशा बदल जाती है, इसका उदाहरण उनसे हुए एक कथोपकथन से जाना जा सकता है. वह कथोपकथन निम्न प्रकार है : एक जवा खेलने का अभ्यासी उनके पास आया । कहने लगा: "महाराज, मैं जिन्दगी से निराश हो चुका हूँ." "क्यों, निराश कैसे हो गए ?"
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